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उत्तम सत्य । [३१ नहीं जाता, इससे यह निश्चित हुआ कि झूठ परभाव है। अर्थात् आत्माका स्वभाव नहीं है और जो आत्माका स्वभाव नहीं है वह धर्म भी नहीं होसकता । इसलिये जब आत्मासे रागद्वेषादि भाव अलग होते हैं-अर्थात् जैसा जैसा इनका क्षय, क्षयोपशम व उपशम होता है, वैसा वैसा ही आत्माका स्वभाव प्रगट होता है। स्वभावके प्रगट होनेपर ही जो वस्तु जैसी है, वैसी कही जा सकती है और उसीको सत्य कहते हैं। - इसलिये जीवमात्रका कर्तव्य है कि वे सत्य बोलें। क्योंकि व्यवहार कार्य भी सत्यके विना नहीं चल सकता । लोकमें भी जिसके वचनकी प्रतीति नहीं होती है, वह निंद्य समझा जाता है। लोग उससे घृणा करते हैं, उसका कभी कोई विश्वास नहीं करता जिससे उसका सब व्यवहार अटक जाता है, आजीविका नष्ट होजाती है। और कोई भी उसकी विपत्तिमें सहायक नहीं होता है। कहा है
"मिथ्याभापी सांच हूं, कहे न माने कोय। .
भांड पुकारे पीर वश, मिस समझे सब कोय ॥" • झूठ बोलनेके कई कारण हैं। कोई भयसे बोलता है तो कोई लोभसे बोलता है, कोई.मोहसे बोलता है, तो कोई वैरवशं बोलता है.। कोई आशावश तो कोई क्रोधवश । कोई मानवश, कोई लज्जावश । कोई कौतुकसे, कोई केवल मनोरंजनके ही लिये बोलता है। इत्यादि ऐसे ही अनेक कारणोंसे लोकमें प्रायः झूठका ही व्यवहार होता है। ...', यद्यपि वोलते समय बोलनेवालेको थोड़ा आनंदसा प्रतीत होता है अथवा झूठ प्रगट : होनेतक लोगोंमें उसकी सत्येवन्तवत्। प्रतीति