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श्रीदशलक्षण धर्म ।
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उत्तम सत्य ।
जिणवयणमेव भासदितं पालेढुं असक माणो वि । चत्रहारेण वि अलियं चदि जो सच्चाई सो ||
अर्थात् ----जो सदैव जिन सूत्रानुसार ही वचन बोलते हैं और -यदि वे तीव्र कर्मके उदयसे कदाचित् उनके अनुसार चल भी नहीं सकते, तो भी कभी असत्य भाषण नहीं करते, न कभी व्यवहार में ( अथवा हास्य कौतुक छलकर भी ) झूठ बोलते हैं वे सत्यवादी कहे जाते हैं। ऐसे पुरुषोंके वचन सदैव स्वपर कल्याण के करनेवाले होते हैं। · ( स्वा० का ० अ० ) कहा भी है कि-
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सते हितं यत् कथ्यते तत् सत्यम् = अर्थात् भलाई के लिये जो बोला जाय उसे ही सत्य कहते हैं और भलाई तब ही हो सकती है जब कि वस्तुका स्वरूप जैसा है वैसा ही - न्यूनाधिकता रहित कहा जाय, इसलिये यथार्थ बोलना ही सत्य बोलना हो सकता है । उत्तम शब्द गुणवाचक है । यह बताता है कि जिस कथन में अपनी ओरसे कुछ भी न मिलाया जाय अर्थात् जैसाका तैसा ही कहा जाय वह • सत्य है । अपनी ओर से न्यूनाधिक तत्र ही किया जाता है, जब कि कुछ रागद्वेष हो, या विषय कषाय पुष्ट करना हो क्योंकि अपेक्षा -रहित पुरुष किसलिये अपने निर्मल आत्माको बात बनानेकी व्यर्थ की उलझन में डालकर दुःखी करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा ।
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तात्पर्य यह है कि विषय, कषाय, रागद्वेषादि भाव आत्मा के निजस्वभाव नहीं हैं, और झूठ बिना विषय तथा कषायभावोंके बोला