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उत्तम मार्दव |
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योग्यायोग्यनरं दृष्ट्वा कुर्वीत विनयादिकं । विद्यातपोगुणैः श्रेष्ठो लघुश्चापि गुरुर्मतः ॥ ३ ॥ श्रावकानां मुनींद्रो हि धर्मवृद्धिं ददत्य हो । अन्येषां प्रकृतानां च धर्मलाभ मतः परं ॥ ४ ॥ आर्यिका तद्वदेवात्र पुण्यवृद्धि च वर्णिनः । दर्शनविशुद्धि प्रायः क्वचिदेतन्मतान्तरम् ॥ ५ ॥ अर्थात ---- दिगम्बर निर्ग्रन्थ साधुओंको अष्टांग नमस्कार और आर्यिका तथा ब्रह्मचारीजनों को दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर शिरोनति करता हुआ चंदना करे । तथा साधर्मी, साधर्मी परस्पर इच्छामि 1 ( इच्छाकार) करें | श्रावकजन भी परस्पर जुहारु करें अथवा अपने से बड़ोंको प्रणामादि करें और छोटों को आशीर्वाद देवें । इस प्रकार यथायोग्य व्यवहार करें। मुनि तथा आर्यिकाजी श्रावकोंको धर्मवृद्धि और अजैन (श्रावकेतर) जनको धर्मलाभ कहें। इसी प्रकार ब्रह्मचारी श्रावकोंको पुण्यवृद्धि अथवा दर्शनविशुद्धि और जैनेतर जनोंको पापं क्षयोsस्तु आदि कहकर आशीर्वाद देवें । यही शिष्टाचार व्यवहार है | इसलिये सब मदों को छोड़ स्वाभाविक और उभय लौकिक सुख देनेवाले ऐसे उत्तम मार्दव धर्मको धारण करना चाहिये इसी में हितं है। सो ही कहा है।
गति जगतमें।
मान महा विपरूप, करे नीच कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदां ॥ १ ॥ : .. उत्तममार्दव गुणं मणि माना, मान करनका कौन ठिकाना । सो निगोद माहिसे आया, दमरी रूकन भाग विकाया ॥
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