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པཎཔཱ་པཉྩནྟན་ནབ་ནསྶ ཡ ད་ངནསྶར་ནསཏྭཱ དཔཎའད༔ ན་ས ང་བན་ནསཨ༥ སཏྟན་པའཚལ་
२४] श्रीदशलक्षण धर्म। रूंकन विकाया कर्मवशते, देव इक इन्द्री भया । उत्तम मुवा चण्डाल हुवा, भूप कीड़ेमें गया ।। जीतव्य योवन धन गुमान, कहा करे जल बुदबुदा । कर विनय बहुश्रुत बड़े जनकी, ज्ञानको पावे वुधा ॥२॥
उत्तम आजव। जो चिंतेइ ण बंक कुणादिण बंक ण जपए बकं । ण य गोवदिणियदोसं अजव धम्मो हवे तस्स ॥
अर्थात्-जो न तो वक्र ( कुटिलता मायाचाररूप) चितवन करता है, न वक्र कार्य करता है और न वक्रता लिये वचन ही बोलता है, तथा अपने दोषोंको नहीं छिपाता है, उसीके उत्तम आर्जव धर्म कहा जाता है । तात्पर्य-मन, वचन, काय और वचनों में जिसके सरलता हो अर्थात् जो मनमें हो वही करे और वही कहे तथा अपने दोषोंको न छिपाकर स्वीकार करे, वही आर्जवधर्मधारी महापुरुष कहा जाता है और उसके दोष दूर होकर वह शीघ्र ही एक पवित्रात्मा होजाता है। सो ही आगे आर्जव धर्मका भाव कहते हैं । यथा
(स्वा० का० अ०) ऋजोर्भावः इति आर्जवः अर्थात्-सरल भावको आर्जव भाव कहते हैं । उत्तम विशेषण है,. अर्थात् जिन भावोंमें किश्चित् भी छल-कपट, दिखावट, बनावट व मायाचारी न हो वे ही भाव आर्जव भाव कहाते हैं। ये भाव आत्माके निजस्वभाव ही हैं जो कि माया कषायके क्षय व उपशम होनेसे प्रकट होते हैं।