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________________ श्रीदशलक्षण धर्म | LI Now I है क्योंकि वह ताड़न तर्जन आनन्द भी जाता रहेगा और तुम शक्तिहीन होनेसे कर भी न सकोगे । प्रायः निर्बलको क्रोध बहुत होता क्रोधवश किसीको मनोनुकूल दंड नहीं दे सकता है, नहीं कर सकता है अर्थात् अपना बदला नहीं ले सक्ता तत्र स्वयं अपने आपका घात कर बैठता है । इसलिये ऐसे रूप सौन्दर्य बलादिका मान करना क्या यथार्थ है ? कभी नहीं । १६ ] 111.1 יטי किसीका कुछ यदि कर्मके क्षयोपशम से कदाचित् तुमको कुछ भी ज्ञानका प्रकाश हुआ है, तो उसका मान मत करो, क्योंकि संसारमें तुमसे भी अधिक अनेकों ज्ञानी भर रहे हैं सो यदि तुम इस तुच्छ क्षायोपशमिक ज्ञानका मान करते हो, तो तुम उस ऊंटके समान हो, जो अपनेको संसारमें सबसे बड़ा मानता है, किंतु जब पहाड़की तलहटी में पहुँचता है, तो उसका मान भंग होजाता है, उसे हार मानना पड़ती है और भूल स्वीकारना पड़ती है कि मैं सबसे बड़ा नहीं हूँ किन्तु मुझसे और भी बड़े बड़े पदार्थ संसार में हैं । 1 सो प्रथम तो यह क्षायोपशमिक ज्ञान है इसका घटना बढ़ना भी संभव है । दूसरे यह ज्ञान इन्द्रियाधीन है सो इंद्रियोंकी शक्ति कम होनेसे स्वयमेव कम होजाता है, इसीसे यह पराधीन और परोक्ष कहाता है | इसलिये जो तुम इसका मान करोगे, तो इन्द्रियोंकी शक्ति कम हो जानेपर ज्ञानमें न्यूनता व विपरीतता होनेसे तुम दूसरोकी दृष्टिमें हीन जँच जाओगे, हँसीके पात्र बन जाओगे, लोग तुम्हारी युक्तियोंको अयुक्ति ठहरावेंगे और तुम्हारे वचनोंको अप्रमाण समझेंगे, तब तुम्हें घोर दुःख होगा और उस समय तुम मानके
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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