SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ numanv viv...... ... ..... Weesan उत्तम मार्दव । १७ वशवर्ती होकर हठात् अपने असत्य वचनोंको भी सत्य सिद्ध करनेकी चेष्टा करोगे । जैसा कि बहुतसे आधुनिक पंडित पूर्वीय तथा पश्चिमी विद्याके अभ्यासी स्ववचन पोषणार्थ अनेकों कुयुक्तियाँ लगाकर ज्योंत्यों स्वपक्ष मंडन और परपक्ष खंडन कर डालते हैं जिससे लोकमें असत्य वचनोंकी प्रवृत्ति हो जाती है और अनेकों मिथ्या मत संसारमें चल जाते हैं जिनमें भोले प्राणी फंस अपने आत्माका अकल्याण कर बैठते हैं । इसलिये ऐसे क्षायोपशमिक, पराधीन तथा अल्पज्ञानका मान करना वृथा है। देखो, जो कोई अल्पज्ञानका मान करता है और दूसरोंको अज्ञानी समझता है, वह सदा अज्ञानी ही बना रहता है, उसके ज्ञानकी वृद्धि कभी नहीं होती है। क्योंकि कहा है___“विनय विना विद्या नहीं, विद्या विन नहीं ज्ञान । . ज्ञान विना सुख नहिं मिले, यह निश्चय कर जान ॥" इसलिये ज्ञानवृद्धिमें भी विनय प्रधान है और मान हानिकारक है। यदि पूर्व पुण्यवशात् कुछ ऐश्वर्य-अधिकार, पूजा, प्रतिष्ठादि प्राप्त हुआ है तो उसके मदमें आकर स्वच्छंद प्रवर्तना अच्छा नहीं है। क्योंकि अभिमानीके सब लोग निष्कारण ही शत्रु बनजाते हैं, जिसमें फिर अभिमानी अधिकारीका तो कहना ही क्या है ? कारण उसका सम्बन्ध बहुतोंसे रहता है और जिस जिससे सम्बंध रहता है वे सभी उसके अभिमानसे पीड़ित (दुःखी) रहते हैं। और अवसर देखते रहते हैं कि कब इससे प्रबल पुरुषका. समागम मिलाकर इसका मांनभंग करावें और बंदला लेवे इत्यादि । . . . . .
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy