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(२१) आचारांग : एक चिन्तन
- कमला खिंवसरा श्री आचारांगसूत्र जैन वाङ्मय का प्रधान अंगसूत्र है । इस आगमसूत्र में जैन श्रमण के आभ्यंतर और बाह्य आचारव्यवहार का व्याख्यान किया है । बौद्धग्रंथ के विनयपिटक में तथा वैदिक परंपरा के धर्मसूत्र और स्मृतिग्रंथों में भी इसी प्रकार के आचार विधान हैं - जो तत्कालीन गृहत्यागी भिक्षुवर्ग के लिए आचार स्पष्ट करते हैं ।
आचारांग के प्रथम अध्ययन का महत्त्व अनोखा है । पर्यावरण, बिजलीबचत, वृक्षबचाव, प्राणिसंरक्षण, वातावरण संतुलन, ऋतुचक्र आदि अनेक विषय उसमें निहित हैं । भ. महावीर के तत्त्वज्ञान का उपयोग आज भी किया जाय तो उक्त समस्याओं पर सहजता से मात की जा सकती है । भ. महावीर द्वारा प्रतिपादित योगसाधना, बारह प्रकार की तपस्या यह बहुत बडी देन है जो जगत् के लिए उपकारी है । इनसे मानसिक तथा शारीरिक आरोग्य अच्छा रहता है ।
___ सांख्यदर्शन में प्रकृति-पुरुष विवेक' इन शब्दों का उपयोग है तो जैनदर्शन 'जड़-चेतन विवेक' के साथ विनय की प्रधानता देता है । सांख्य मतानुसार पंचमहाभूत जड हैं (अर्थात् पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नी, आकाश) तो जैनदर्शनानुसार
चेतन हैं । सद्यस्थिति में पदयात्रा का उपयोग राजकीय क्षेत्र में अपने स्वार्थ के लिए किया जाता है तो जैनदर्शन में प्राचीन काल से ग्रामानुग्राम पैदल विहार करने का विधान है । जिससे साधु-साध्वी धर्मप्रचार एवं आचार का पालन अच्छी तरह से कर सके।
__ आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में साधु-चिकित्सा का विषय प्रतिपादित है। अतिप्राचीन काल में साधु-साध्वी चिकित्सा नहीं करते थे । उस वेदना को