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इन सबसे यही प्रतीत होता है कि उनकी दृष्टि में नारी का स्थान श्रेष्ठ रहा है । और होना भी चाहिए क्यों कि भ. महावीर समता के पुरस्कर्ता थे । उनके विचार से साधु और साध्वी दोनों मोक्ष के अधिकारी है । (यहाँ यह ध्यान में रखना है कि तब तक श्वेताम्बर-दिगम्बर ऐसे भेद नहीं थे ।)
उस समय के जैन समाज में महिलाएँ धर्मसभा, प्रवचन, समवशरण में भी जाने के संकेत मिलते हैं । वह चर्चा-संगोष्ठी में भी भाग लेती रही थी । यह उस समाज की उदारता का लक्षण था ।
परंतु वैदिक परंपरा में सभाओं में आदि, नारी जाने के उल्लेख नहीं मिलते। हिंदुओं में स्त्री-शिक्षण को मान्यता नहीं थी । उसके लिए विवाह का सबसे बडा महत्त्व पतिपरमेश्वर और पातिव्रत्य पालन ही उसका धर्म । ऐसी परिस्थिति में जैनों ने नारी को जो स्वतंत्रता दी वह सबसे बडी बात है ।
लेख के शुरूआत में जिन घटनाओं का उल्लेख हैं, उनसे आज भी नारी के विषय में समाज के क्या विचार है, यह तो स्पष्ट होता ही है, वही पर भ. महावीर और उनके पूर्व तीर्थंकरों के विचार में नारी का स्थान देखकर, जैन समाज के इस क्रांतिकारी विचारों को प्रणाम करना चाहिए ।
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