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(६) भाषैषणा अध्ययन में नारीविचार
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अर्जुन निर्वाण
बीसवी सदीं के प्रथम और दूसरे दशक में अमरीका जैसे प्रागतिक राष्ट्र में स्त्रियाँ रास्ते पर उतर आयी । उन्होंने बडा आंदोलन छेडा, इसलिए कि उन्हें भी “मतदान का अधिकार” मिलें । जो बडी मुश्किलों के बाद उन्हें मिला ।
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इक्कीसवी सदी की शुरूआत में भारतीय संसद में महिलाओं को ३३ फीसदी आरक्षण मिलने का प्रस्ताव रखा गया । जो अभी तक खटाई में पड़ा है। उसके लिए संसदों की आम सहमति नहीं बन पायी ।
यह दो घटनाएँ केवल सौ वर्ष के अंदर घटित हुई । इनसे आज के समाज में, 'नारी का क्या स्थान है', यह दिखाई देता है । ऐसी स्थिति में २५०० वर्ष पहले भ. महावीर की विचारधारा के अनुसार नारी का उस समाज में जैनों के अनुसार क्या स्थान था ? यह देखना अत्यंत रोचक है ।
साधु को अपनी जरूरतों के लिए श्रावक-श्राविकाओं से सम्पर्क करना पडता है । विशेषकर भोजन की, वस्त्र, पात्र की याचना के लिए गृहिणी से बोलना पडता है । तब वे उन्हें कैसे संबोधित करते हैं, इसका वर्णन आता है । यह संबोधन निम्न है - हे आयुष्यमती, हे भगिनी, हे भाग्यवती, हे श्राविके, हे उपासिके, हे धार्मिके, हे धर्मप्रिये । इन सारे संबोधनों से जैन साधु नारी को कितना सम्मान देते थे, यह दिखता है । उनका महिलाओं के प्रति आदर व्यक्त होता है ।
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वह कैसी भागोंवाली है, यह कहने से उसकी वजह से गृह का सम्मान है, यह दिखलाया है । ‘धार्मिक', 'धर्मप्रिय' और 'श्राविका' इन वचनों से उसकी धर्मप्रवणता दृगोचर होती है । 'भगिनी' कहने से उसके प्रति आत्मीयता जतायी है । 'आयुष्मती' बोलकर उसके दीर्घायु की कामना भी की गयी है ।
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