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(७) आचारांगकालीन खाद्यसंस्कृति
- सविता मुनोत आचारांगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध में ‘साधुआचार' के बारे में बताया गया है। 'पिण्डैषणा' अध्ययनद्वारा, ‘साधु को किस प्रकार का आहार लेना चाहिए ?' यह कहा गया है । इसका वर्णन करते समय अनेक खाद्यपदार्थों के नाम आये हैं । उन्हें पढकर हमें, '२६०० साल पहले की ‘खाद्यसंस्कृति' कैसी थी ?' इसका पता चलता है । साथ-साथ सामाजिक परिस्थिति भी दृष्टिगोचर होती है । आज हम रेसिपी बुक, दूरदर्शन आदि के माध्यम से, मायक्रोवेव्ह, फूड-प्रोसेसर आदि की सहायता से देश-विदेश के पदार्थ आसानी से बना सकते हैं । आचारांगसूत्र जिस काल में लिखा गया था, उस समय लोगों का जनसंपर्क नहीं था । फिर भी वे कितने पदार्थ बनाते थे, इनसे उनके खवैयेगिरि की कल्पना आती है ।
अब धोवन-पानी को ही देखो । १७-१८ प्रकार के धोवन हैं । उनमें आम, कपित्थ, बिजौरा, दाडिम, बेर आदि के धोवन को हम ज्यूस या शरबत भी कह सकते हैं । इनकी रेसिपी भी बतायी है ।
विविध प्रकार के फल, जिनके आज हम नाम भी नहीं जानते - जैसे अंबाड, ताड, झिज्झिरी, सुरभि, सल्लकी आदि हैं । पेडों के कोमल पत्ते भी लोग खाने में इस्तेमाल करते थे - जैसे पीपल, बड, पिलंखु, नन्दीवृक्ष, सल्लकी, वल्ली इनके कोंपल वे खाते थे । खाने में दूध, दही, मक्खन, घी के वर्णन से, 'भारत भूमि किस प्रकार सुजलाम्-सुफलाम् थी', यह जान पडता है ।
सूर्यविकासी, चंद्रविकासी, पुष्कर आदि कमल, उनकी डंडियाँ और टुकडे आदि खाने में इस्तेमाल करते थे । ये आधुनिक 'सॅलडस्' हैं । सालुककन्द, बिराली नाम स्थलकन्द, सरसों का कन्द भी खाये जाते थे ।
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