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'आवंती' भी है । इसके छह उद्देशकों में इस प्रश्न का विचार किया है कि, 'इस असार संसार में सार क्या है ?' सामान्यतः लोगों को स्त्रियाँ,
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धन तथा विविध परिग्रह सारभूत लगते हैं । लेकिन अहिंसा, विरति, अपरिग्रह, स्वाध्याय, गुप्ति तथा उन्मार्ग का वर्जन ये चीजें भ. महावीर ने 'साररूप' बताई हैं ।
छठा अध्ययन : छठें अध्ययन का नाम धुत (धुय) है । 'धु' ('धू') इस क्रिया का मूलगामी अर्थ है - हिलाना, झटकना, प्रकम्पित करना । साधु को चाहिए कि वह पाँच महत्त्वपूर्ण चीजें दूर करें, प्रकम्पित करें । स्वजनों के प्रति आसक्ति, आत्मा में प्रविष्ट कर्मपुद्गल, शरीर और उपकरणों के प्रति ममत्व, तीन गारव तथा अनुकूल-प्रतिकूल परिषह ये सब चीजें झटकने, दूर करने तथा त्यागने योग्य हैं । 'धुतवाद' कर्मनिर्जरा का सिद्धान्त है । जिन-जिन हेतुओं से कर्मनिर्जरा होती है उन सबकी
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'धुत' संज्ञा है ।
सप्तम अध्ययन : सप्तम अध्ययन का नाम महापरिज्ञा (महापरिण्णा) है। महापरिण्णा याने विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोहजन्य दोषों को जानकर विवेक से (प्रत्याख्यान परिज्ञा से ) उसका त्याग करना । प्रस्तुत अध्ययन में विभिन्न मोहजन्य स्थिति के उपस्थित होने पर वह किसी चमत्कार एवं यन्त्र-मन्त्र का प्रयोग करके मोह के प्रवाह में न बहें किन्तु उन परिषहों पर विजय प्राप्त करें ।
इस अध्ययन में मोहजन्य अनेक दोषों का उल्लेख था । अतः इससे सामान्य साधकों के जीवन में शिथिलता आने की सम्भावना थी ।
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