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विषय से होता है । शीत और उष्ण याने अनुकूल और प्रतिकूल परिषह सहन करते समय मुनि सदा जागृत रहकर वे समभाव से सहन करता है । इस समताबुद्धि का पालन इस अध्ययन का और पूरे आचारांग का ही प्रतिपादन है । इसी वजह से अनेक ग्रन्थों में आचारांग का पर्यायवाची नाम 'सामायिक' भी दिया है ।
चतुर्थ अध्ययन : चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व ( सम्मत्त ) है । कषायों का वमन करना ही धर्म है और सम्यक्त्व ही कषायों का वमन करने का प्रधान कारण है । इसलिए आचारांग में प्रस्तुत अध्ययन का अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान है । चूर्णिकार ने लिखा है - 'चतुःशाला के मध्य में
रखा हुआ दीपक उस सम्पूर्ण चतुःशाला को प्रकाशित कर देता है, वैसे ही आचारांग सूत्र का यह मध्यगत अध्ययन सम्पूर्ण आचार ( आचारांग ) को आलोकित करता है ।'
इस अध्ययन के चार उद्देशकों में क्रम से सम्यग्वाद, अन्य धर्ममतों की परीक्षा, सम्यक् तप का वर्णन और बाल-तप का निषेध, नियमन या संयमन का संक्षिप्त कथन निर्दिष्ट है । तात्पर्य की भाषा में पहले उद्देशक में सम्यग्दर्शन, दूसरे में सम्यग्ज्ञान, तीसरे में सम्यक्तप और चौथे में सम्यक्चारित्र का निरूपण है । इस अध्ययन का आरम्भ 'सव्वे पाणा न हंतव्वा' इस प्रतिपादन से होता है । इस अहिंसाभाव को ही तथ्य, वास्तविकता और सम्यग्दर्शन कहा है ।
पंचम अध्ययन : पंचम अध्ययन का नाम लोकसार (लोगसार ) है । अध्ययन का आरम्भ ‘आवंती' शब्द से होने के कारण इसका दूसरा नाम
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