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आचारांग : बाह्य रचना
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आचारांग सूत्र का द्वादश अंगों में महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसलिए इसे अंगों का सार कहा है । ‘सामायिक' नाम से भी इसका उल्लेख किया गया है । निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों के आचार-विचार का यहाँ विस्तार से वर्णन है । इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में ९ अध्ययन हैं जो 'बंभचेर' (ब्रह्मचर्य) कहलाते हैं । इनमें ४४ उद्देशक हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं जो तीन चूलिकाओं में विभक्त हैं । दोनों के विषय और वर्णनशैली देखकर जान पडता है कि पहला श्रुतस्कन्ध दूसरे की अपेक्षा अधिक मौलिक और प्राचीन है । यह गद्य और पद्य दोनों में है, कुछ गाथाएँ अनुष्टुप् छन्द में हैं । इसकी भाषा प्राचीन प्राकृत का नमूना है । 'एवं मे सुयं' (ऐसा मैंने सुना है), 'त्ति बेमि' (ऐसा मैं कहता हूँ) आदि वाक्य प्राचीनता के द्योतक हैं ।
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इस ग्रन्थ सूत्र पर आ. भद्रबाहु ने निर्युक्ति, जिनदासगणि ने चूर्णि और शीलांक (इ.स. ८) ने वृत्ति लिखी है ।
आचारांग ( प्रथम श्रुतस्कन्ध) की विषयवस्तु
उद्देशक
विषय
क्र. नाम
१.
शस्त्र-परिज्ञा
२. लोक-विजय
३.
४.
शीतोष्णीय
सम्यक्त्व
७
६
४
४
जीवसंयम, षड्जीवकाय - यतना ।
बन्ध और मुक्ति का प्रबोध,
लौकिक सन्तान का गौरव - त्याग ।
- उष्ण
सुख-दुःख तितिक्षा, शीत - उ आदि परिषहों पर विजय । सम्यक्-दृष्टिकोण, अप्रकम्पनीय
सम्यक्त्व ।