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आचारपंचक
आचारांग के व्याख्याकारों ने बताया है कि आचारांग में १) ज्ञानाचार २) दर्शनाचार ३) चारित्राचार ४) तपाचार और ५) वीर्याचार वर्णित है । इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे सामने जो आचारांग उपलब्ध है उसमें क्रमसे आचार आये हैं । फिर भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य ये सब मुद्दे आचारांग के सभी अध्ययनों में निहित हैं । इस पंचविध आचार का मूल स्रोत आचारांग ही है । जैसे कि सत्थपरिण्णा आदि अध्ययनों में प्रमुखता से ज्ञानाचार; सम्मत्त आदि अध्ययनों में प्रमुखता से दर्शनाचार; लोगसार, धुय आदि अध्ययनों में प्रमुखता से चारित्राचार; सीओसणिज्ज, विमोक्ख आदि अध्ययनों में तपाचार और उवहाण-सुय आदि अध्ययनों में प्रमुखता से वीर्याचार वर्णित है ।
‘आचार' शब्द का एक विशिष्ट अर्थ उत्तरवर्ती आचार्यों ने स्पष्ट किया है । पाँच समिति, तीन गुप्ति, परिषह आदि स्वरूप जो मुनिआचार है, उन सबका मूल स्रोत आचारांग ही है । लेकिन आचारांग के सूत्रों का अगर हम अर्थ-दृष्टि से अवलोकन करें तो यह मालूम पडता है कि सभी जीवों के प्रति संवेदनशीलता तथा विचारचेतना की जागृति करना ही आचारांग का प्रयोजन है। उत्तरवर्ती काल में जिस प्रकार कर्मकाण्डात्मक आचार स्थापित हुआ उसका पारिभाषिक
और क्रमबद्ध स्वरूप आचारांग में नहीं दिखाई देता । इसी विचार से शायद उत्तरवर्ती आचार्यों ने (प्रायः भद्रबाहु ने) एषणास्वरूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना की होगी।