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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अन्य लोग भी कहते हैं परन्तु उनका यथार्थ स्वरूप नहीं जानते अतः जिनवाणी के अनुसार अरिहन्तादि का सच्चा स्वरूप अवश्य ही निश्चय करना चाहिये । इस कार्य में भोला रहना। योग्य नहीं है ।। ३३ ।।
जिनाज्ञारत जीव पापियों को सिरशूल हैं।
सुद्धा जिण आणरया, केसिं पावाण हुंति सिरसूलं । जेसिं ते सिरसूलं, केसिं मूढा ण ते गुरुणो । । ३४ ।।
अर्थः- जिनराज की शुद्ध आज्ञा में तत्पर रहने वाले पुरुष कितने ही पापी जीवों को सिरशूल हैं अर्थात् यथार्थ जिनधर्मियों के आगे मिथ्यादृष्टियों का मत चलने नहीं पाता अतः वे इनको अनिष्ट भासेंगे ही और कई जीवों को वे मूर्ख गुरु नहीं, उनको वे सिरशूल हैं ।।
भावार्थः- जो जीव मिथ्यादृष्टियों को गुरु नहीं मानते हैं, यथार्थ श्रद्धानी हैं उनको वे कुगुरु यथार्थ मार्ग का लोप करने वाले अनिष्ट लगते हैं कि ऐसे मिथ्यादृष्टियों का संयोग जीवों को कभी भी न हो' । । ३४ । ।
१. टि० - सागर प्रति में इस गाथा का अर्थ व भावार्थ ऐसे है:
अर्थः- जिनराज की शुद्ध आज्ञा में तत्पर रहने वाले पुरुष कितने ही पापी जीवों को सिरदर्द के समान हैं क्योंकि यथार्थ जिनधर्मियों के पास मिथ्यादृष्टियों के मत चल नहीं पाते इसलिए वे इन्हें अनिष्ट लगते हैं। उन मूर्ख जीवों को वे ज्ञानी 'गुरु' नहीं, सिरदर्द के समान लगते हैं ।। भावार्थः- जो जीव मिथ्यादृष्टियों को गुरु मानते हैं वे यथार्थ श्रद्धावान को कुगुरु मानते है तथा उन्हें यथार्थ मार्ग का लोप करने वाले अनिष्ट समझते हैं। ऐसे मिथ्यादृष्टियों का संयोग • जीवों को कभी न हो । । ३४ ।।
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भव्य जीव