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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत श्री नेमिचंद जी भव्य जीव लेने वाले हो गये हैं सो इस निकृष्ट काल में ही हुए हैं-ऐसा जानना ।। ३१।। इस काल में जिनधर्म की विरलता क्यों मिच्छपवाहे रत्तो, लोओ परमत्थ जाणओ थोओ। गुरुणो गारव रसिया, सुद्धं मग्गं णिगृहति।।३२।। अर्थः- मिथ्यात्व के प्रवाह में आसक्त जो लोक उसमें परमार्थ के जानने वाले तो बहुत थोड़े हैं और गुरु कहलाने वाले अपनी महिमा के रसिक हैं इसलिये वे शुद्ध मार्ग को छिपाते हैं ।। भावार्थ:- धर्म का स्वरूप गुरु के उपदेश से जानने में आता है परन्तु इस काल में जो गुरु कहलाते हैं वे अपनी महिमा में आसक्त होने से यथार्थ धर्म का स्वरूप नहीं कहते इसलिए इस काल में जिनधर्म की विरलता हुई है।। ३२ ।। देव-गुरु का यथार्थ स्वरूप पाना कठिन है सव्वो वि अरह देवो, सुगुरु गुरु भणइ णाम मित्तेण। तेसिं सरूव सुहयं, पुण्णविहूणा ण पार्वति।।३३।। अर्थः- अरिहन्त देव और निर्ग्रन्थ गुरु-ऐसा तो नाममात्र से सब ही कहते हैं परन्तु उनका यथार्थ सुखमय स्वरूप भाग्यहीन जीवों को प्राप्त नहीं होता ।। भावार्थ:- नाममात्र से तो 'अरिहन्त देव और निर्ग्रन्थ गुरु' ऐसा वाम
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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