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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भव्य जीव
पा
कार्यों में लगने से पुण्य के योग से सम्यक्त्वादि गुण श्री नेमिचंद जो रूप पवित्र भावों को उल्लसित अर्थात् हुलसायमान करती
है अतएव जीव का जो धन सुपात्र को दान आदि धर्म कार्यों में लगता है वही सफल है-यह तात्पर्य है।। ३० ।।
आगे कई जन दान भी देते हैं परन्तु कुपात्र के योग से वह दान निष्फल ही जाता है ऐसा दिखाते हैं :
पंचम काल में गुरु भाट हो गये हैं गुरुणो भट्टा जाया, सद्दे थुणिऊण लिंति दाणाई। दोण्णि वि अमुणिय सारा, दूसम समयम्मि वुड्डंति।।३१।।
अर्थः- इस दुःखमा पंचम काल में गुरु तो भाट हो गये हैं जो शब्दों द्वारा दातार की स्तुति करके दान लेते हैं सो ये दाता और दान लेने वाले दोनों ही जिनमत के रहस्य से अनभिज्ञ होने से संसार समुद्र में डूबते हैं।।
भावार्थ:- दाता तो अपने मानादि कषाय भावों का पोषण करने के लिए दान देता है और दान लेने वाला लोभी होकर दाता में अविद्यमान गुणों को भाट के समान गा-गाकर दान लेता है। इस प्रकार मिथ्यात्व
और कषाय के पुष्ट होने से दोनों ही संसार में डूबते हैं और यहाँ 'पंचम काल में' कहने का अभिप्राय यह है कि इस प्रकार स्तुति करके दान लेने वाले अन्य मत में तो ब्राह्मण आदि पहिले से भी थे परन्तु अब जिनमत में भी अनेक वेषधारी भाट के समान स्तुति करके दान
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