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________________ उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत श्री नेमिचंद जी ग्रंथकर्ता के हृदय का आक्रन्दन हा! हा! गुरुय अकज्जं, सामी णहु अत्थि कस्स पुक्करिमो। भव्य जीता कह जिणवयण कह सुगुरु, सावया कहय इदि अकज्ज।।३५।। GO अर्थः- हाय ! हाय !! बड़ा अकार्य है कि प्रगट कोई स्वामी नहीं है, हम किसके पास जाकर पुकार करें कि 'जिनवचन तो किस प्रकार के हैं और सुगुरु कैसे होते हैं और श्रावक किस प्रकार के हैं। यह बड़ा अकार्य है।। ___ भावार्थ:- जिनवचन में तो जिसके पास तिल-तुष मात्र भी परिग्रह न हो ऐसे परिग्रह रहित को 'गुरु' कहा गया है और सम्यक्त्वादि धर्म के धारक 'श्रावक' कहे गये हैं परन्तु इस समय इस पंचम काल में गृहस्थों से भी अधिक तो परिग्रह रखते हैं और अपने को गुरु मनवाते हैं तथा इसी प्रकार देव-गुरु-धर्म का व न्याय-अन्याय का तो कुछ ठीक नहीं है और अपने को श्रावक मानते हैं सो यह बड़ा भारी अन्याय-अकार्य है। 'अरे रे ! न्याय करने वाला कोई नहीं है, किससे कहें'-इस प्रकार आचार्य ने खेद प्रगट किया है।। ३५ ।। ___ कुगुरु के त्यागी को दुष्ट कहना मूर्खता है सप्पे दिढे णासइ, लोओ ण हु किंपि कोई अक्खेइ। जो चयइ कुगुरु सप्पं, हा! मूढा भणइ तं दुटुं ।।३६ ।। अर्थः- अरे रे ! सर्प को देखकर लोग दूर भागते हैं तो उनको तो मन
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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