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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी/
भव्य जीव
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कोई भी कुछ कहता नहीं पर जो कुगुरु रूपी सर्प का त्याग करते हैं उन्हें हाय ! हाय !! मूर्ख लोग दुष्ट कहते हैं-यह बड़े खेद की बात है।।
भावार्थ:- सर्प से भी अधिक दुःखदायी कुगुरु हैं परन्तु सर्प का त्याग करने वाले को तो सभी लोग भला कहते हैं और जो कुगुरु को त्यागता है उसे मूर्ख जीव निगुरा, गुरुद्रोही अथवा दुष्ट इत्यादि वचनों से संबोधित करते हैं सो यह बड़ा खेद है।। ३६ ।। अब कुगुरु में सर्प से भी अधिक दोष क्या है सो बताते हैं :
कुगुरु सेवन से सर्प का ग्रहण भला सप्पो इक्कं मरणं, कुगुरु अणंताई देइ मरणाई। तो वर सप्पं गहिअं, मा कुरु कुगुरु सेवणं भद्द !||३७।। अर्थः- सर्प तो एक ही मरण देता है अर्थात् यदि कदाचित् सर्प डसे तो एक बार ही मरण होता है परन्तु कुगुरु अनंत मरण देता है अर्थात् कुगुरु के प्रसंग से मिथ्यात्वादि की पुष्टि होने से नरक-निगोदादि में जीव अनंत बार मरण को प्राप्त होता है इसलिये हे भद्र! सर्प का ग्रहण करना तो भला है परन्तु कुगुरु का सेवन भला नहीं है, तू वह मत कर ।। ३७।।
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