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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
आगे लोगों की अज्ञानता दिखाते हैं :
अहो ! यह लोक भेड़चाल से ठगाया गया जिण-आणा वि चयंता, गुरुणो भणिऊण जे णमस्संति। तो किं कीरइ लोओ, छलिओ गड्डरि-पवाहेण ।।३८।। अर्थः- जिनराज की आज्ञा तो यह है कि 'कुगुरु का सेवन मत करो, उनको छोड़ दो' उस आज्ञा का भी त्याग करके और कुगुरु को गुरु कहकर नमस्कार करते हैं सो क्या करें! लोक गाडरी-प्रवाह अर्थात् भेड़चाल से ठगाया गया है।। ___ भावार्थ:- जिस प्रकार एक भेड़ कुएँ में गिरती है तो उसके पीछे-पीछे चली आने वाली सभी भेड़ें कुएँ में गिरती जाती हैं, कोई भी हित-अहित का विचार नहीं करतीं उसी प्रकार कोई अज्ञानी जीव किसी एक कुगुरु को मानता है तो उसकी देखादेखी सभी लोग उसे मानने लग जाते हैं, कोई भी गुणदोष का निर्णय नहीं करता यह अज्ञान की महिमा है।। ३८।।
महा मोह की महिमा णिदक्खिणो लोओ, जइ कुवि मग्गेइ रुट्टिया खंड। कुगुरूणसंगवयणे, दक्खिणं हा! महामोहो।।३६।। अर्थः- यदि कोई रोटी का एक टुकड़ा भी माँगता है तो लोक में उसे प्रवीणता रहित बावला कहते हैं परन्तु कुगुरु नाना प्रकार के
परिग्रहों की याचना करता है तो भी लोग उसे प्रवीण कहते हैं सो मत हाय ! हाय !! यह महा मोह का ही माहात्म्य है।। ३६ ||