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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
कुगुरु स्व-पर अहितकारी है
किं भणिमो किं करिमो, ताण हयासाण धिट्ट दुट्ठाणं । जे दंसिऊण लिंगं, खिंचंति णरयम्मि मुद्धजणं ।। ४० ।।
अर्थः- आचार्य कहते हैं कि 'उन कुगुरुओं को हम क्या कहें और उनका क्या करें! कुगुरु लिंग अर्थात् बाह्य वेष दिखाकर भोले जीवों को नरक में खींचे ले जाते हैं । कैसे हैं वे कुगुरु ? नष्टबुद्धि हैं अर्थात् कार्य-अकार्य के विवेक से रहित हैं तथा लज्जा रहित चाहे जो बोलते हैं अतः ढीठ हैं एवं धर्मात्माओं के प्रति द्वेष रखते हैं अतः दुष्ट भी हैं ।। भावार्थः- कुगुरु अपने मिथ्या वेष से भोले जीवों को ठगकर कुगति में ले जाते हैं ।। ४० ।।
सारिखे की सारिखे से प्रीति
कुगुरु विसंसि मोहं, जेसिं मोहाइ चंडिमा दट्टं । सुगुरुण उवरि भत्ती, अइ णिविडा होई भव्वाणं । । ४१ । ।
अर्थः- जिनके मिथ्यात्वादि मोह का तीव्र उदय है उन्हें तो कुगुरुओं के प्रति भक्ति - वंदना रूप अनुराग होता है और भव्य जीवों को बाह्य–अभ्यंतर परिग्रह रहित सुगुरु के प्रति ही तीव्र प्रीति होती है ।।
भावार्थ:- जो जीव जैसा होता है उसकी वैसे ही जीव के साथ प्रीति होती है सो जो तीव्र मोही कुगुरु हैं उनके प्रति तो मोहियों की ही प्रीति होती है व वीतरागी सुगुरुओं के प्रति मंद मोही जीवों की प्रीति होती है - ऐसा जानना । । ४१ । ।
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भव्य जीव