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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
KING
श्री नेमिचंद जी
जिनधर्म विरल देखकर भी निर्मल श्रद्धान का होना जह जह उट्ठइ धम्मो, जह जह दुट्ठाण होइ अइ उदओ। भव्य जीव सम्मादिट्टि जियाणं, तह तह उल्लसइ सम्मत्तं ।। ४२।। अर्थ:- जैसे-जैसे जिनधर्म हीन होता जाता है तथा जैसे-जैसे दुष्टों का अत्यंत उदय होता जाता है वैसे-वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीवों का सम्यक्त्व उल्लसित होता जाता है।।
भावार्थ:- इस निकृष्ट काल में जिनधर्म की अवनति और मिथ्यादृष्टियों के सम्पदा का उदय देखकर दृढ़ श्रद्धानी जीवों को कभी भी ऐसी भावना नहीं होती कि इन मिथ्यादृष्टियों का धर्म भी भला है किन्तु उल्टे निर्मल श्रद्धान होता जाता है कि यह तो काल का दोष है, भगवान ने ऐसा ही कहा है ।। ४२।।
इस काल के जीवों का पापोदय जइ जंतु जणणि तुल्ले, अइ उदयं जं ण जिणमए होइ। तं किट्ट काल संभव, जियाणं अइ पाव माहप्पं ।। ४३।। अर्थ:- छह काय के जीवों की रक्षा करने में माता के समान जो जिनधर्म, उसका भी यदि अत्यंत उदय नहीं होता है तो यह इस निकृष्ट काल में जन्मे हुए जीवों के अति पापोदय का ही माहात्म्य है।। __ भावार्थ:- इस निकृष्ट काल में भाग्यहीन जीव उत्पन्न होते हैं, उन्हें जिनधर्म की प्राप्ति अतिशय दुर्लभ है अतः दिनोंदिन जिनधर्म की विरलता दिखाई दे रही है पर जिनधर्म किसी प्रकार से भी हीन नहीं है।। ४३।।