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उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला
श्रा
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
मिथ्यादृष्टि के लक्षण धम्मम्मि जस्स माया, मिच्छत्त गाहा उस्सुत्ति णो संका। भव्य जीत कुगुरु वि करइ सुगुरु, दिउसो वि सपाव पुण्णोत्ति'।। ४४।। अर्थः- जिन जीवों को धर्म के विषय में माया-छल है अर्थात् धर्म के किसी अंग का सेवन करते हैं तो उसमें अपनी ख्याति, लाभ-पूजादि का आशय रखते हैं; गाथा-सूत्रों का अर्थ मिथ्या मानते हैं अर्थात् गाथा-सूत्रों का यथार्थ अभिप्राय तो जानते नहीं और उल्टे मिथ्या अर्थ ग्रहण करते हैं; उत्सूत्र अर्थात् सूत्र के अतिरिक्त बोलने में जिन्हें शंका नहीं होती, यद्वा-तद्वा कहते हैं; पक्षपातवश कुगुरु को सुगुरु बतलाते हैं तथा पाप रूप दिवस को पुण्य रूप मानते हैं-ऐसे जीव मिथ्यादृष्टि हैं।। ४४।।
आगे धर्म कार्य भी यदि जिनाज्ञा से रहित करें तो उसमें दोष दिखलाते हैं :
प्रत्येक धर्मकार्य जिनाज्ञा प्रमाण ही कर किच्चं पि धम्म किच्चं, पूयापमुहं जिणिंद आणाए। भूअ मणुग्गह रहियं, आणा भंगादु दुहदाय।। ४५।।
१. टि०-'दिउसो निस पाव पुण्णोत्ति' पाठ उपयुक्त जंचता है जिसका अर्थ है कि 'रात को तो दिन और पाप को पुण्य कहते हैं।' 'दिउसो' के स्थान पर 'उदओ' शब्द होने पर 'उदओ वि सपाव पुण्णोत्ति' पद का अर्थ होगा कि 'पाप के उदय (समय-दिन) को पुण्य का उदय कहते हैं।'
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