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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
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अर्थः- करने योग्य जो पूजा–प्रतिष्ठा आदि धर्म कार्य हैं घ र श्री नेमिचंद जी वे भी जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा प्रमाण ही यथार्थ करने योग्य भव्य जीवा
हैं क्योंकि यत्नाचार रहित जो कार्य हैं वे जिनाज्ञा के भंग होने से दुःखदायक ही हैं ।।
भावार्थः- पूजनादि कार्यों का विधान जिस प्रकार से करने को जिनवाणी में कहा है उसी प्रमाण यत्नाचार सहित करना चाहिये, अपनी इच्छा के अनुसार यद्वा-तद्वा करना योग्य नहीं है।। ४५।।
मिथ्यात्व संसार में डुबाने का कारण है कौटुं करोदि अप्पं, दमन्ति दव्वं चयति धम्मत्थी। इक्कं ण चयंति मिच्छत्तं, विसलवं जेण वुड्डति।। ४६।। अर्थः- कई जीव धर्म के इच्छुक होकर कष्ट करते हैं, आत्मा का दमन करते हैं एवं द्रव्यों का त्याग भी करते हैं परन्तु एक मिथ्यात्व रूपी विष के कण को ही नहीं छोड़ते हैं और इसी कारण वे संसार में डूबते हैं ।। ___ भावार्थ:- कई जीव धर्म के इच्छुक होकर उपवासादि कार्य भी करते हैं परन्तु सच्चे देव-गुरु-धर्म की व जीवादि तत्त्वों की श्रद्धा का कुछ ठीक ही नहीं है तो उनसे कहते हैं कि 'सम्यक्त्व के बिना ये समस्त
कार्य यथार्थ फल देने वाले नहीं हैं इसलिये प्रथम जिनवाणी के अनुसार सरवर श्रद्धान ठीक करना चाहिये ।। ४६ ।। ।
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