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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
संगति से धर्मानुराग की वृद्धि - हानि
सुद्धविहि धम्मराओ, वड्ढई सुद्धाण संगमे सुअणे । सोविय असुद्ध संगे, णिउणाणि वि गलइ अणुदीहं ।। ४७ ।।
अर्थः- निर्मल श्रद्धावान सज्जनों की संगति से निर्मल आचरण सहित धर्मानुराग बढ़ता है और वही धर्मानुराग अशुद्ध मिथ्यादृष्टियों की संगति से प्रवीण पुरुषों का भी प्रतिदिन घटते हुए हीन हो जाता है ।।
भावार्थ:- जैसी संगति मिलती है वैसे ही गुण उत्पन्न होते हैं इसलिए अधर्मी पुरुषों की संगति छोड़कर धर्मात्मा पुरुषों की संगति करनी चाहिये क्योंकि सम्यक्त्व का मूल कारण यही है ।। ४७ ।।
मिथ्यादृष्टियों के निकट मत बसो
जो सेवइ सुद्ध गुरु, असुद्ध लोआण सो महासत्तू । तम्हा ताण सयासे, बलरहिओ मा वसिज्जासु ।। ४८ ।।
अर्थः- जो पुरुष बाह्य- अभ्यंतर परिग्रह रहित शुद्ध गुरुओं का सेवक है वह मिथ्यादृष्टि जीवों का महा शत्रु है इसलिए उसे उन मिथ्यादृष्टियों के निकट बलरहित होकर नहीं बसना चाहिए ।।
भावार्थ:- जिस क्षेत्र में मिथ्यादृष्टियों का बहुत जोर हो वहाँ धर्मात्मा पुरुषों को रहना उचित नहीं है, उन्हें तो जिनधर्मियों की संगति में ही रहना उचित है - यह उपदेश है ।। ४८ ।।
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भव्य जीव