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(विविध)
(१) जिनद्रव्य जो चैत्यालय का द्रव्य उसे जो पुरुष अपने प्रयोग में लेते हैं वे जिनाज्ञा से पराङ्मुख अज्ञानी मोह से संसार समुद्र में डूबते हैं
।। गाथा १२ ।।
(२) मध्यम स्थिति वाले गुण-दोष तो अनुसंग ( संगति) से होते हैं पर उत्कृष्ट पुण्य-पाप अनुसंग से नहीं होते । भोले जीवों को ही जैसा निमित्त मिले वैसे परिणाम होते हैं ।। २८ ।।
(३) लक्ष्मी इन दो प्रकार की होती है - एक लक्ष्मी तो पुरुषों के भोगों मे लगने से पाप के योग से सम्यक्त्वादि गुण रूप ऋद्धि का नाश करती है और एक दान-पूजा में लगने से पुण्य के योग से सम्यक्त्वादि गुणों को हुलसायमान करती है सो पात्रदानादि धर्म कार्य में जो धन लगता है वह ही सफल है । । ३० ।।
(४) शुद्ध जिनमार्ग में जन्म लेने वाले जीव तो सुखपूर्वक शुद्ध मार्ग में चलते ही हैं परन्तु जिन्होंने अमार्ग में जन्म लिया है और मार्ग में चलते हैं सो आश्चर्य है । । ८३ ।।
(५) यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकरादि बड़े पुरुष इसको क्यों त्यागते अतः ज्ञात होता है कि संसार में महा दुःख है । । ९४ ।।
(६) गुण और दोष को नहीं पहचानने वाले मूर्ख जीव पंडितों के उपर क्रोधादि करते ही हैं क्योंकि उन्हें उनके गुणों की परख नहीं है अथवा वे मूर्ख भी यदि क्रोधादि न करें और मध्यस्थ हों तो विष और अमृत का समानपना ठहर जाये सो है नहीं । । १०२ ।।
(७) संसार में पर्यायदृष्टि से कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है इसलिए शरीरादि के लिए वृथा पाप का सेवन करना और आत्मा का कल्याण नहीं करना - यह मूर्खता है । । १०९ । ।
(८) नष्ट हुए पदार्थों का शोक करके ऊँचे स्वर से रोते हुए जो सिर और छाती कूटता है वह अपनी आत्मा को नरक में पटकता है । । ११० ।।
(९) ऐसा वस्तुस्वरूप ही है कि जो पर्याय व्यतीत हो गई वह फिर नहीं आती अतः शोक में कुछ सार नहीं है। शोक एक तो वर्तमान में दुःख रूप है और दूसरे आगामी नरकादि दुःखों का कारण है । ।१११ । ।
(१०) जो जीव वीर्यादि सत्त्व रहित हैं, धन तथा पुत्रादि स्वजनों में मोहित व लोभी हैं और शक्तिहीन हैं वे ही उदर भरने के लिए व्यापार में पापकर्म का सेवन करते हैं, शक्तिवान नहीं । । १२० ।।
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