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संगति
(१) निर्मल श्रद्धावान सज्जनों की संगति से निर्मल आचरण सहित धर्मानुराग बढ़ता है और सो ही धर्मानुराग अशुद्ध मिथ्यादृष्टियों की संगति से दिन-दिन प्रति प्रवीण पुरुषों का भी हीन हो जाता है ।। गाथा ४७ ।।
(२) जैसी संगति मिलती है वैसा ही गुण उत्पन्न होता है इसलिए अधर्मियों की संगति छोड़कर धर्मात्माओं की संगति करना - यही सम्यक्त्व का मूल कारण है । । ४७ भा० ।। (३) निर्मल पुण्य युक्त जो सज्जन पुरुष उसकी मैं बलिहारी जाता हूँ, प्रशंसा करता हूँ जिसके संगम से शीघ्र ही निर्मल धर्मबुद्धि हुलसायमान होती है । । १०६ । ।
(४) मिथ्यात्व रहित सम्यक्त्वादि धर्मबुद्धि हुलसाने की इच्छा हो तो साधर्मी विशेष ज्ञानियों की संगति करो क्योंकि संगति ही से गुण-दोष की प्राप्ति देखी जाती है । । १०६ भा० ।।
(५) जगत में सुवर्ण-रत्नादि वस्तुओं का विस्तार सब ही सुलभ है परन्तु जो सुमार्ग में रत हैं अर्थात् जिनमार्ग में यथार्थतया प्रवर्तते हैं उनका मिलाप निश्चय से नित्य ही दुर्लभ है । । १४३ ।।
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