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________________ मोह का माहात्म्य (१) रक्ताम्बर, पीताम्बर, हंस एवं परमहंस आदि मिथ्या वेषों के धारकों को धर्म के लिये हर्ष से पूजता है-वंदता है और उससे जो सम्यग्दर्शन की हानि होती है उसको जानता नहीं है सो यह मोह का माहात्म्य है।।गाथा ५।। (२) प्रयोजन के लोभ से पुत्रादि स्वजनों के मोह को तो ग्रहण करता है अथवा स्वजनों के व्यामोह में धन को तो लोभ से ग्रहण करता है परन्तु रमणीक जिनधर्म को ग्रहण नहीं करता । अहो ! यह मोह का माहात्म्य है । ।१९ । । (३) यदि कोई रोटी का एक टुकड़ा मांगता है तो प्रवीणता रहित बावला कहलाता है पर कुगुरु के द्वारा नाना प्रकार के परिग्रह की याचना किये जाने पर भी लोग उसे प्रवीण कहते हैं सो यह मोह का माहात्म्य है । । ३९ ।। (४) जीव का कुगुरुओं के प्रति भक्ति - वंदना रूप जो अनुराग होता है यह मोह का माहात्म्य है । । ४१ ।। (५) मिथ्यात्व के सेवन से सैकड़ों विघ्न आते हैं उन्हें तो मूर्ख लोग गिनते भी नहीं परन्तु धर्म का सेवन करने वाले धर्मात्मा पुरुषों को पूर्व कर्म के उदय से यदि कदाचित् किंचित् भी विघ्न आ जाये तो ऐसा कहते हैं कि यह विघ्न धर्म सेवन से आया है-ऐसी जो विवेकहीन विपरीत बुद्धि होती है सो यह मोह का माहात्म्य है । । ८४ ।। (६) अत्यन्त मान और मोह रूपी राजा के द्वारा ठगाये गये कई अधम मिथ्यादृष्टि सम्यक् शास्त्रों की भी निन्दा करते हैं और निन्दा करने से जो नरकादि के दुःख होते हैं उन्हें गिनते नहीं हैं सो यह मोह का माहात्म्य है।।९७।। (७) साधर्मियों के प्रति तो अहितबुद्धि और बंधु-पुत्रादि में अनुराग सो यह मोह का माहात्म्य है । ।१४७ ।। (८) मिथ्यात्व की मजबूत गाँठ के कारण जिनवचनों को पा करके भी हित-अहित का विचार नहीं जगता और स्व-पर का विवेक उल्लसित नहीं होता सो यह मोह का माहात्म्य ।।१५३ ।। 66
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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