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(९) जिस प्रकार पृथ्वीतल पर प्रकट दैदीप्यमान सूर्य भी मेघ से आच्छादित होने पर लोगों को दिखाई नहीं देता उसी प्रकार प्रकट जिनदेव भी मिथ्यात्व के उदय में जीवों को दिखाई नहीं देते ।।८० ।। (१०) जिस प्रकार कल्पवृक्ष की समानता अन्य कोई वृक्ष नहीं कर सकता उसी प्रकार शुद्ध जिनधर्म का उपदेश देने वाले की समानता अन्य धन-धान्यादि पदार्थों को देने वाला नही कर सकता ।।१०१।। (११) जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश हो जाने पर भी उल्लुओं का अंधत्व नष्ट नहीं होता उसी प्रकार सुगुरु के वचन रूपी सूर्य का तेज मिलने पर भी कई जीवों का मिथ्यात्व अंधकार नष्ट नहीं होता ।।१०८ ।। (१२) जिस प्रकार का यह कार्य है कि पहले तो ऊपर पर्वत से गिरना और फिर लाठी से सिर में घाव हो जाना उसी प्रकार का ही यह भी कार्य है कि एक तो प्रियजन के मरण का दुःख होना और दूसरा उसके शोक में अपने को नरक में पटकना ।।१११।। (१३) जिस प्रकार प्रकटपने सारे अंग सहित गाड़ी भी एक धुरी के बिना नहीं चलती उसी प्रकार धर्म का बडा आडंबर भी सम्यक्त्व के बिना फलीभत नहीं होता ।।११६ || (१४) जिस प्रकार घोर बंदीखाने में पड़ा जीव दूसरों को छुड़ाकर सुखी नहीं कर सकता उसी प्रकार मिथ्यात्व एवं कषायों के द्वारा स्वयं अपना घात करने वाला जीव अन्य जीवों पर करुणा नहीं कर सकता ।।११८ ।। (१५) जिस प्रकार महावीर स्वामी का जीव मारीचि जैन सूत्र का उल्लंघन करके उपदेश देने के कारण अति भयानक भव-वन में कोड़ाकोड़ी सागर तक घूमा उसी प्रकार जिनाज्ञा भंग करके अपनी पंडिताई से अन्यथा कहने वाले जीव अभिमान से अपने को पंडित मानते हुए नरक में डूब जाते हैं ।।१२२-१२४ ।। (१६) जिस प्रकार लोक में भी यह प्रसिद्ध है कि यदि कोई राजादि की सेवा करके उससे फल चाहता है तो उसकी आज्ञा प्रमाण चलता है और उसकी सेवा तो करे परन्तु आज्ञा नहीं माने तो उसे फल नहीं मिलता उसी प्रकार यदि तुम जिनदेव की आराधना करके उसका फल चाहते हो तो जिनेन्द्र की आज्ञा प्रमाण चलना और यदि आज्ञा को प्रमाण नहीं करोगे तो आराधना का फल जो मोक्षमार्ग वह पाना दुर्लभ है ।।१३२।।