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हैं पर इनके परिणामों में बहुत ज्यादा अंतर है । । ७४ ।।
(१०) मिथ्यात्व का सेवन करने वाले अज्ञानियों को सैकड़ों विघ्न आते हैं तो भी पापी जीव कुछ नहीं कहते परन्तु दृढ़ सम्यक्त्वी ज्ञानियों को पूर्व कर्म के उदय से यदि विघ्न का एक अंश भी आ जाता है तो उसे धर्म का फल प्रकट कर कहते हैं । । ८४ ।।
(११) ज्ञानी जीव को विघ्न भी उत्सव और अज्ञानी को परम उत्सव भी महा विघ्न है। सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जीव को पूर्व कर्म के उदय से यदि कोई उपसर्ग आदि भी आ जाये तो वहाँ उसकी श्रद्धा निश्चल रहने से पाप कर्म की निर्जरा होती है और पुण्य का अनुभाग बढ़ जाता है जिससे उसे भविष्य में महान सुख होगा अतः उसे विघ्न भी उत्सव के समान है जबकि मिथ्यात्व सहित जीव के किसी पूर्व पुण्य कर्म के उदय से वर्तमान में तो सुख सा दिखाई देता है पर उसे वह अत्यंत आसक्तिपूर्वक भोगता है जिससे उसके तीव्र पाप का बंध होने से आगामी नरकादि का महान दुःख ही होता है अतः मिथ्यादृष्टि को उत्सव भी विघ्न के समान है ।। ८५ ।। (१२) सम्यक्त्व रूपी रत्नराशि से सहित ज्ञानी पुरुष धन-धान्यादि वैभव से रहित होने पर भी वास्तव में वैभव सहित ही हैं और सम्यक्त्व से रहित अज्ञानी पुरुष धनादि सहित हों तो भी दरिद्र हैं ।। ८८ ।।
(१३) ज्ञानी सम्यग्दृष्टि को धर्मकार्य • समय में यदि कोई व्यापारादि का कार्य आ जाये जो वह उसे दुःखदायी जान धर्मकार्य को छोड़कर पाप कार्य में नहीं लगता है यह ही सम्यग्दृष्टि का चिन्ह है तथा जिसको धर्मकार्य तो रुचता नहीं, जैसे-तैसे उसे पूरा करना चाहता है और व्यापारादि को रुचिपूर्वक करता है सो यह ही मिथ्यादृष्टि का चिन्ह है - ऐसा जानना । । ८९ । । (१४) कोई जीव आगम रहित तपश्चरण आदि क्रियाओं का आडम्बर अधिक करते हैं सो उससे अज्ञानी मूर्ख जीव तो रंजायमान होते हैं परन्तु ज्ञानियों के द्वारा तो वह निन्दनीय ही है | १०० ||
(१५) ज्ञानी जीव ही धर्म के स्वरूप को जानते हैं, अज्ञानी नहीं । ।११७ ।। (१६) जो जीव नीचे गिरने रूप आलम्बन को ग्रहण करते हैं अर्थात् अणुव्रत - महाव्रतादि रूप ऊपर की दशा का त्याग करके निचली दशा जिनको रुचती है वे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही हैं और जिनका मन ऊपर चढ़ने रूप सीढ़ी पर रहता है अर्थात् सम्यक्त्वादि ऊपर का धर्म धारण करने का जिनका भाव रहता है वे ज्ञानी सम्यग्दृष्टि हैं | | १४२ । ।
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