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ज्ञानी-अज्ञानी ||
(१) गृह व्यापार के परिश्रम से खेदखिन्न कितने ही अज्ञानी जीवों का तो विश्राम स्थान एक स्त्री ही है परन्तु ज्ञानी जीवों का जिनभाषित श्रेष्ठ धर्म ही विश्राम का स्थान है ||गाथा २० ।।
(२) उदर भरकर अपनी पर्याय तो ज्ञानी-अज्ञानी दोनों ही पूरी करते हैं परन्तु IMI उनकी क्रिया के फल में अन्तर तो देखो कि अज्ञानी तो अत्यन्त आसक्तपने
के कारण नरक जाकर वहाँ के दुःख भोगता है और ज्ञानी भेदविज्ञान के बल से कर्मों का नाश कर शाश्वत सुखी हो जाता है।।२१।। (३) शुद्ध गुरु के मुख से शास्त्र सुने तो श्रद्धानपूर्वक धर्म में रुचि होती है पर अश्रद्धानी के मुख से शास्त्र सुनने पर श्रद्धान निश्चल नहीं होता ।।२२।।। (४) जो अत्यंत पापी जीव हैं वे तो धर्म के पर्यों में भी पाप में तत्पर होते हैं परन्तु जो ज्ञानी धर्मात्मा हैं, निर्मल श्रद्धानी हैं वे जीव किसी भी पाप पर्व में धर्म से चलायमान नहीं होते ।।२९ ।। (५) जिन अज्ञानियों के मिथ्यात्वादि मोह का तीव्र उदय है उनके कुगुरुओं की भक्ति-वंदना रूप अनुराग होता है परन्तु भव्य जीवों की वीतरागी सुगुरुओं पर तीव्र प्रीति होती है।।४१।। (६) निर्मल श्रद्धावान ज्ञानी सज्जनों की संगति से निर्मल आचरण सहित धर्मानुराग बढ़ता है और वही धर्मानुराग अशुद्ध मिथ्यादृष्टि अज्ञानियों की संगति से दिन-दिन प्रति प्रवीण पुरुषों का भी हीन हो जाता है ।।४७ ।। (७) जिस स्थान पर जैन सिद्धान्त का ज्ञानी गृहस्थ तो असमर्थ हो और अज्ञानीजन समर्थ हों वहाँ धर्म की उन्नति नहीं होती और धर्मात्मा जीव अनादर ही पाता है।।४९ || (८) कई अज्ञानी जीव जिनमत की अवज्ञा करते हैं जिससे नरकादि के घोर दुःख पाते हैं और ज्ञानियों के हृदय उन दुःखों का स्मरण करके भय से थरथर काँपते हैं ||६९|| (९) कितने ही जीव तो कुलक्रम में आसक्त हैं, जैसा बड़े करते आये वैसा करते हैं, कुछ निर्णय नहीं कर सकते और कितने ही जीव जिनवाणी के अनुसार निर्णय करके जिनधर्म को धारण करते हैं सो इन दो प्रकार के जीवों के अन्तरंग में देखो कि कितना बड़ा अन्तर है ! ये बाह्य में तो एक जैसे दिखते