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(७) केवल अज्ञान से कोई जीव यदि पदार्थ को अयथार्थ भी कहे तो आज्ञा भंग का दोष नहीं है परन्तु कषाय के योग से एक अंश मात्र भी अन्यथा कहे या करे तो अनंत संसारी होता है अतः धर्मार्थी पुरुषों को कषाय के वश से जिनाज्ञा भंग करना योग्य नहीं है और जिनको मानादि कषायों का पोषण ही करना हो उनकी कथा नहीं है।।९८।। (८) कोई कहे कि 'तुम्हें राग-द्वेष है इसलिए तुम ऐसा उपदेश देते हो' तो उससे ऐसा कहा है कि 'किसी लौकिक प्रयोजन और राग-द्वेष की पुष्टि के लिये हमारा उपदेश नहीं है, केवल धर्म के लिए सुगुरु और कुगुरु के ग्रहण-त्याग कराने का हमारा प्रयोजन है' ||१०४।। (९) इस निकृष्ट काल में धर्मार्थी होकर धर्म सेवन करना दुर्लभ है। लौकिक प्रयोजन के लिए जो धर्म का सेवन करते हैं सो नाममात्र सेवन करते हैं, धर्म सेवन का गुण जो वीतराग भाव उसको वे नहीं पाते सो ऐसे जीव बहुत ही हैं ।।११२ ।। (१०) जो जीव लौकिक प्रयोजन साधने के लिये पाप करते हैं वे तो पापी ही हैं परन्तु जो बिना प्रयोजन ही अपनी मान कषाय को पोषने के लिये पंडितपने के गर्व से जिनमत के विरुद्ध उपदेश करते हैं वे महापापी हैं।।१२१।। (११) अभिमान विष को उपशमाने के लिये अरिहंत देव एवं निग्रंथ गुरुओं का स्तवन किया जाता है अर्थात् गुण गाये जाते हैं पर उससे भी मान का पोषण करना कि 'हम बड़े भक्त और बड़े ज्ञानी हैं तथा हमारा बड़ा चैत्यालय है आदि' सो यह उनका अभाग्य है ।।१४४ ।।
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