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अभिप्राय
(१) कषाय के वश से जिनवर की आज्ञा के सिवाय यदि एक अक्षर भी कहे तो वह जीव निगोद चला जाता है इसलिए अपनी पद्धति बढ़ाने के लिए अथवा मानादि का पोषण करने के लिये उपदेश देना योग्य नहीं है । |गाथा ११।। (२) यथार्थ उपदेश देने वाले वक्ता का कारण के वश से क्रोध करके कहना भी क्षमा ही है क्योंकि उसका अभिप्राय जीवों को धर्म में लगाने का है और जो आजीविका आदि के लिए यथार्थ उपदेश नहीं देता वह अपना और पर का अकल्याण करने से उसकी क्षमा भी अभिप्राय के वश से दोष रूप है।।१४ ।। (३) दान देने वाला तो अपने मान का पोषण करने के लिए देता है और लेने वाला लोभी हो दूसरे में अविद्यमान गुणों को भी गाकर लेता है सो दोनों ही मिथ्यात्व और कषाय को पुष्ट करते हैं ।।३१।। (४) मिथ्यादृष्टि ही धर्म के किसी अंग का भी सेवन करने में अपनी ख्याति-लाभ और पूजा का आशय रखता है अर्थात् धर्म में भी माया अर्थात् छल करता है।।४४ ।।। (५) जो जीव क्रोधादि कषायों से संयुक्त होकर अपनी बड़ाई आदि के लिए धर्म का सेवन करते हैं उन्हें बड़ाई भी नहीं मिलती और कषाय संयुक्त होने से धर्म भी नहीं होता ।।५५ ।। (६) दूसरे जनों से प्रशंसा चाहने के लोभ से अर्थात् मुझे सब अच्छा कहेंगे-इस अभिप्राय से जिनसूत्र के विरुद्ध न बोलकर सूत्रानुसार ही यथार्थ उपदेश देना योग्य है।।५६ ।।