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________________ CM 米樂米樂米樂米樂米樂米樂米器 (५१) जिन जीवों का हृदय अशुद्ध और मिथ्या भावों से मलिन है वे धर्मवचनों से क्या समझेंगे अर्थात् कुछ नही समझेंगे अतः ऐसे विपरीतमार्गी जीवों को उपदेश देने में कुछ भी सार नहीं है, उनके प्रति मध्यस्थ रहना ही उचित है ।।१२६ ।। (५२) वे मिथ्यादृष्टि हैं जिन्हें सुगुरु और कुगुरु में अन्तर नहीं दिखाई देता ।।१३०।। (५३) जो जीव नीचे गिरने रूप आलम्बन को ग्रहण करते हैं वे मिथ्यात्व सहित हैं, उनको ही अणुव्रत-महाव्रतादि रूप ऊपर की दशा का त्याग करके निचली दशा रुचती है।।१४२|| (५४) साधर्मियों के प्रति तो अहितबुद्धि है और बंध-पुत्र आदि के प्रति अनुराग है तो प्रकटपने ही मिथ्यात्व है-ऐसा सिद्धान्त के न्याय से जानना चाहिए।।१४७ ।। (५५) उन मिथ्यात्व रूपी सन्निपात से ग्रस्त जीवों का कौन वैद्य है जो जिनराज को मानते हुए भी कुदेवों को नमस्कार करते हैं। अन्य जीव तो मिथ्यादृष्टि ही हैं परन्तु जो जैनी होकर भी अन्य रागादि दोष सहित कुदेवों को वंदते-पूजते हैं वे महा मिथ्यादृष्टि हैं ।।१४९।। (५६) वे जीव मिथ्यादृष्टि हैं जो चैत्यालय आदि में भेद मानकर कि ये चैत्यालयादि तो हमारे हैं और ये दूसरों के हैं परस्पर में भक्ति नहीं करते और धन नहीं खरचते ।।१५०-१५१।। (५७) तब तक मिथ्यात्व की मजबूत गाँठ का खोटा माहात्म्य है जब तक जिनवचनों को पाकर भी जीव को हित-अहित का विवेक उल्लसित नहीं होता ।।१५३ ।। (५८) मिथ्यात्व का ठिकाना जो निकृष्ट भाव उससे नष्ट हुआ है महाविवेक जिनका ऐसे हमें इस काल में स्वप्न में भी सुख की संभावना कैसे हो ! ।।१५८।। (५९) मिथ्यात्व की प्रवृत्ति इस काल में बहुत है इसलिए हम जीवित हैं और श्रावक कहलाते हैं सो भी आश्चर्य है।।१५९ ।। *** 樂樂彩米米米米
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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