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चाहता है पर व्यापार आदि को रुचिपूर्वक करता है सो यह ही मिथ्यादृष्टि का चिन्ह है । । ८९ ।।
(४०) जिनमत में रागी-द्वेषी अपूज्य कुदेवों की पूजा मिथ्यात्व को करने वाली कही गई है । । ९० ।।
(४१) कई अधम मिथ्यादृष्टि जो कि मिथ्यात्व राजा के द्वारा ठगाये गये हैं सम्यक शास्त्रों की निन्दा करते हैं और उसमें होने वाले नरकादि के दुःखो को गिनते नहीं हैं ।। ९७ ।।
(४२) कितने ही मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा किए गए तपश्चरणादि क्रियाओं के आगम रहित अनेक आडम्बर मूर्खों को ही रंजायमान करने के लिये होते हैं, ज्ञानियों को नहीं, ज्ञानियों को तो वे निन्द्य ही भासते | 1900 ||
(४३) कुगुरु मिथ्यात्व का मूल कारण है । । १०४ ||
(४४) सद्गुरु के वचन रूपी सूर्य का तेज मिलने पर भी जिनका मिथ्यात्व अंधकार नष्ट नहीं होता वे जीव उल्लू जैसे हैं । । १०८ ।। (४५) मिथ्यात्व से युक्त जीवों की यह मूर्खता है और उनके ढीठपने को धिक्कार हो कि तीन लोक के जीवों को मरता हुआ देखकर भी वे अपनी आत्मा का अनुभव नहीं करते और पापों से विराम नहीं लेते । । १०९ ।। (४६) मिथ्यात्व से मोहित जीवों की रति मिथ्या धर्मों में ही होती है, शुद्ध जिनधर्म में नहीं । ।११३ । ।
(४७) मिथ्यादृष्टि जीव धर्म का स्वरूप नहीं जानते सो न जानने वालों पर कैसा रोष - ऐसा जानकर ज्ञानी उन पर मध्यस्थ रहते हैं । । ११७ ।। (४८) मिथ्यात्व व कषायों के द्वारा जो अपना घात स्वयं करते हैं अर्थात् उन्हें अपना आत्मा ही वैरी है उन्हें दूसरे जीवों पर दया कैसे हो सकती है ! । ।११८ । ।
(४९) वे जीव मिथ्यात्वादि के द्वारा नरकादि ही के पात्र हैं जो जिनाज्ञा भंग करते हैं और अपनी पंडिताई से अन्यथा उपदेश कहते हैं । । १२४ । । (५०) जिन जीवों के मिथ्यात्व का तीव्र उदय है उन्हें बार-बार उपदेश देने से कुछ साध्य नहीं है क्योंकि वे तो उल्टे विपरीत ही परिणमते हैं । ।१२५ ।।
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