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________________ G©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©© VA हो और किसी प्रतिज्ञा को धारण करके स्वयं को श्रावक माने तो यह योग्य A GO नहीं है।।७३।। MA (२४) दृढ़ सम्यक्त्वयुक्त जीवों को यदि पूर्व कर्म के उदय से विघ्न का एक Me है अंश भी आ जाये तो भी पापी जीव उसे प्रकट करके कहते हैं कि यह धर्म र म का फल है जबकि मिथ्यात्व का सेवन करने वालों को सैकड़ों विघ्न आते हैं SWE तो भी कोई यह नहीं कहते कि 'ये विघ्न मिथ्यात्व का सेवन करने के कारण आये हैं ||८४।। (२५) सम्यक्त्वी जीव के विघ्न भी उत्सव के समान है क्योंकि किसी कर्म के SNo. उदय से यदि उसके उपसर्ग भी आता है तो उसमें उसका श्रद्धान निश्चल Glo ale रहने से पाप की निर्जरा होती है और पुण्य का अनुभाग बढ़ता है तब आगामी 1 र महा सुख होता है सो सम्यक्त्व सहित दुःख भी भला है ।।८५|| 09 (२६) जो जीव मरण पर्यन्त द:ख को प्राप्त होते हए भी सम्यक्त्व को नहीं ala छोड़ते उनको इन्द्र भी अपनी ऋद्धियों के विस्तार की निन्दा करता हुआ ©© प्रणाम करता है क्योंकि वह जानता है कि 'सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है al अतः अविनाशी ऋद्धि है सो दृढ़ सम्यक्त्वी जीव ही शाश्वत सुख प्राप्त करते काल हैं जबकि लोक की ये ऋद्धियाँ इन्द्र-विभूति आदि तो विनाशीक हैं, दुःख की काल ही कारण हैं ||८६ ।। R (२७) मोक्षार्थी जीव अपने जीवन को तो तृण के समान त्याग देते हैं परन्तु 9) सम्यक्त्व को नहीं त्यागते क्योंकि जीवन तो पुनः प्राप्त हो जाता है परन्तु 30 Sale सम्यक्त्व के चले जाने पर उसका फिर पाना दुर्लभ है।।८७।। G© (२८) जो पुरुष सम्यक्त्व रूपी रत्नराशि से सहित हैं वे यदि धन-धान्यादि Ge AV विभव रहित हैं तो भी विभव सहित हैं और वे ही सच्चे धनवान हैं क्योंकि 5 वीतरागी सुख के आस्वादी हैं और परद्रव्य के होने तथा न होने में उन्हें . a हर्ष-विषाद नहीं होता परन्तु जो पुरुष सम्यक्त्व से रहित हैं वे धनवान होते - हुए भी दरिद्र हैं क्योंकि वे परद्रव्य की हानि-वृद्धि से सदा आकुलित र o० हैं।।८८।। VA (२९) सम्यग्दृष्टि को अवश्य ज्ञान -वैराग्य होता है इसलिए वीतराग की पूजा हो G© आदि में उसे परम रुचि बढ़ती है। धर्मकार्य के समय में किसी व्यापारादि Go कार्य के आ जाने पर वह धर्मकार्य को छोड़कर पापकार्य में नहीं लगता-यह - ही सम्यग्दृष्टि का चिन्ह है।। ८९ ।। । alloSOOOOOOOOOOOOOOOOOOO 50
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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