SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ YOGYOG YOG YOGYOG YOGY बढ़ता है अतः वह सम्यक्त्व की मूल कारण है सो उसे करना चाहिये । ४७ ।। (१४) साधर्मियों से प्रीति करना सम्यक्त्व का अंग है । । ५२ ।। (१५) जिन्हें मिथ्यात्व पाप में तो हर्ष और जिनवचनों के प्रति द्वेष है ऐसे महा मिथ्यादृष्टि जीवों को भी निर्मल चित्त वाले सत्पुरुष परम हित देने की इच्छा रखते हैं ।।६२ ।। (१६) सम्यग्दृष्टियों में ही ऐसी सज्जनता होती है कि वे सभी जीवों के प्रति समान भाव रखते हैं और किसी का भी बुरा नहीं चाहते । वे तो विष के समूह को उगलते हुए सर्प के प्रति भी दयाभाव ही रखते हैं । । ६३ ।। (१७) कई जीव अपने को सम्यक्त्वी मानकर अभिमान करते हैं, उनसे यहाँ कहा है कि 'घर के व्यापार से रहित बहुत से मुनियों के ही सम्यक्त्व नहीं होता तो घर के व्यापार में तत्पर जो गृहस्थ उनकी हम क्या कहें, उन्हें सम्यक्त्व होना तो महा दुर्लभ है इसलिए तत्त्वों के विचार में सतत उद्यमी रहना योग्य है, थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करके अपने को सम्यक्त्वी मानकर प्रमादी होना योग्य नहीं है' । । ६४ ।। (१८) कितने ही जीव तपश्चरणादि तो करते हैं परन्तु जिनवचनों की श्रद्धा नहीं करते और उसके बिना उनका समस्त आडम्बर वृथा है अतः सम्यक् श्रद्धानपूर्वक ही क्रिया करनी योग्य है । ६५ ।। (१९) जीवों के जैसे-जैसे श्रद्धान निर्मल होता जाता है वैसे-वैसे लोकव्यवहार में भी उनकी धर्म रूप प्रवृत्ति होती जाती है और लोकमूढ़ता रूपी खोटा आचरण छूटता जाता है । ६६ ।। (२०) समस्त मूढ़ताओं में लोकमूढ़ता ही प्रबल है जिससे बडे-बड़े पुरुषों तक का श्रद्धान शिथिल हो जाता है । दृढ़ सम्यक्त्व रूपी महाबल से रहित बड़े पुरुष भी लोकमूढ़ता के प्रवाह रूप उत्कट पवन की प्रचण्ड लहरों से हिल जाते हैं ।।६८ ।। (२१) जिसके भी निश्चल सम्यक्त्व नहीं वह दोषवान है अतः प्रथम जीव को अपना श्रद्धान दृढ़ करना चाहिये | |७० || (२२) तब तक तो सम्यक्त्व का अंश भी नहीं हो सकता जब तक मिथ्या देवादि की सेवा है अतः मिथ्या देवादि का प्रसंग तो प्रथम दूर ही से छोड़ देना चाहिये और तब ही सम्यक्त्व की कोई बात करनी चाहिये यह अनुक्रम है । । ७१ ।। (२३) सम्यग्दर्शन का अर्थात् देव-गुरु-धर्म के श्रद्धानादि का तो कुछ ठीक न 49
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy