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कभी भी नहीं उपजेगी ।।८।। (५) कई जीव व्यापारादि को छोड़कर ज्ञान बिना आचरण करते हुए भी अपने आपको गुरु मानते हैं उनसे कहा है कि 'व्यापारादि में होने वाला आरम्भ इतना पाप नहीं है जितना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व सब पापों में बड़ा पाप है' ||१०|| (६) विद्यादि का चमत्कार देखकर भी कुगुरु का प्रसंग करना योग्य नहीं है क्योंकि स्वेच्छाचारी के उपदेश से अपने श्रद्धानादि मलिन हो जाने से बहुत बड़ी हानि होती है।।१८ ।। (७) अश्रद्वानी कुगुरु के मुख से यदि शास्त्र सुने तो श्रद्धान निश्चल नहीं होता-ऐसा तात्पर्य है ।।२२।। (८) वह ही तो कथा है, वह ही उपदेश है और वह ही ज्ञान है जिससे जीव गुरु का और कुगुरु का स्वरूप जान ले । ।२४।। (९) पंचम काल में गुरु भाट हो गए जो शब्दों से दातार की स्तुति करके दान को लेते हैं ।।३१।।। (१०) आज जो गुरु कहलाते हैं वे अपनी महिमा में आसक्त हुए यथार्थ धर्म का स्वरूप नहीं कहते अतः इस काल में जिनधर्म की विरलता है।।३२।। (११) जो जीव श्रद्धानी हैं उनको कुगुरु यथार्थ मार्ग के लोपने वाले अनिष्ट भासते हैं कि 'इनका संयोग जीवों को कदाचित् मत होओ' ||३४ ।। (१२) श्रीगुरु तिल के तुष मात्र भी परिग्रह से रहित ही होने चाहिएं परन्तु आज गृहस्थ से भी अधिक तो परिग्रह रखते हैं और अपने को गुरु मनवाते हैं सो यह बड़ा अकार्य है।।३५।। (१३) सर्प को जो त्यागे उसको तो सब भला कहते हैं परन्तु कुगुरु को जो त्यागे उसे मूर्ख जीव निगुरा व दुष्ट कहते हैं-यह बड़े खेद की बात है क्योंकि सर्प से भी अधिक दुःखदायी कुगुरु है।।३६ ।। (१४) सर्प तो एक ही मरण देता है पर कुगुरु के प्रसंग से मिथ्यात्वादि पुष्ट होने से जीव निगोदादि में अनंत मरण पाता है इसलिए सर्प का ग्रहण तो भला है परन्तु कुगुरु का सेवन भला नहीं है।।३७।।
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