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कुगुरु
(१) मिथ्यावेषधारी रागी कुगुरुओं के द्वारा ठगाये जाते हुए जीव अपनी धर्म रूपी निधि के नष्ट होते हुए भी इस बात को मानते नहीं हैं, जानते नहीं हैं । ।गाथा ५।। (२) प्रश्न-हमारे तो मिथ्यावेषधारी कुगुरुओं की सेवा कुलक्रम से चली आई है तो हम अपने कुलधर्म को कैसे छोड़ दें ? उत्तर-हे मूढ़ ! लोकप्रवाह तथा कुलक्रम में धर्म नहीं होता। यदि लोकप्रवाह अर्थात् अज्ञानी जीवों के द्वारा माने हुए आचरण और अपने कुलक्रम में ही धर्म हो तो म्लेच्छों के कुल में चली आई हुई हिंसा से भी धर्म होगा तब फिर अधर्म की परिपाटी कौन सी ठहरेगी ! ||६|| (३) यदि कोई अपने को बड़े आचार्यों के कुल का बताकर पाप करेगा तो पापी ही है, गुरु नहीं है-ऐसा जानना ।।७।। (४) कई जीव संसार से छूटने के लिये कुगुरुओं का सेवन करते हैं उनको यहाँ कहा है कि वीतराग भाव के पोषक जिनवचनों को जानकर भी जब संसार से उदासीनता नहीं उपजती तो फिर राग-द्वेष को पुष्ट करने वाले कुगुरुओं के निकट संसार से विरक्तता कैसे उपजेगी अर्थात्