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(१५) गुण-दोष का निर्णय न करके जिनाज्ञा से प्रतिकूल कुगुरु को भी गुरु कहकर नमस्कार करते हैं सो लोक क्या करे भेडचाल से ठगाया गया है।।३८।। (१६) मोह की यह भारी महिमा है कि नाना प्रकार के परिग्रहों की याचना करने पर भी कुगुरु प्रवीण ठहराया जाता है।।३९ ।।। (१७) कुगुरु अपने मिथ्या वेष से भोले जीवों को ठगकर कुगति में खींचे ले जाते हैं। कैसे हैं वे कुगुरु ? नष्टबुद्धि हैं अर्थात् कार्य-अकार्य के विवेक से रहित हैं तथा लज्जा रहित हैं एवं चाहे जो बोलते हैं अतः ढीठ हैं और धर्मात्माओं के प्रति द्वेष रखने से दुष्ट भी हैं ।।४० ।। (१८) जो जीव जैसा होता है उसकी वैसे ही जीव के साथ प्रीति होती है सो जो तीव्र मोही कुगुरु हैं उनके प्रति मोहियाँ की ही प्रीति होती है।।४१।। (१९) कुगुरु को पक्षपातवश सुगुरु मिथ्यादृष्टि जीव ही बतलाते हैं।।४४ ।। (२०) कुगुरु मिथ्यात्व का आचरण करते हुए भी स्वयं को सुगुरु का शिष्य बताते हैं और वस्त्रादि परिग्रह धारण करते हुए भी अपना आचार्य आदि पद मानते हैं सो योग्य नहीं ।।७२ ।। (२१) मात्र वेष धारण किया है जिन्होंने उन्हें वंदन करने से, उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करने से तथा उनकी विशेष भक्ति करने से जीव महा भव-समुद्र में डूबते हैं इसलिए उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये ।।८।। (२२) मिथ्यात्व के मूल कारण कुगुरुओं के ही त्याग कराने का यहाँ प्रयोजन है।।१०४।। (२३) इस दुःखमा काल में राग-द्वेष सहित नाम मात्र के गुरु बहुत हैं पर धर्मार्थी सुगुरु दुर्लभ हैं ||११२ ।। (२४) कितने ही गुरु तो देखे जाते हुए भी तत्त्वज्ञानियों के हृदय में नहीं रमते अर्थात् वे लोक में तो गुरु कहलाते हैं परन्तु उनमें गुरुपने के गुण नहीं होते, ऐसे गुरु तत्त्वज्ञानियों को नहीं रुचते पर कई गुरु अदृष्ट हैं, देखने में नहीं आते तो भी ज्ञानी उनका परोक्ष स्मरण करते हैं जैसे जिन हैं इष्ट जिनको ऐसे गणधरादि आज प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भी ज्ञानियों के हृदय में वे रमते हैं ।।१२९ ।।