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कई जीव धर्म के अर्थी होते हुए भी कष्ट करते हैं, आत्मा का दमन करते हैं, द्रव्यों को त्यागते हैं परन्तु एक मिथ्यात्व विष के कण को नहीं त्यागते जिससे संसार में डूब जाते हैं।
जिन जीवों के
अपना आत्मा वैरी है अर्थात् मिथ्यात्व और कषायों से जो अपनो घात आप ही करते हैं उनको पर जीवों पे दया कैसे हो, जैसे घोर बन्दीखाने में पड़े जो जीव हैं वे औरों को कैसे सुखी करें, कैसे, छुड़ावें!
'मिथ्यात्व
सहित धनी भी दरिद्र है।
(१८७)
जीव !
तू अन्य अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के दोषों का क्या निश्चय करता है, वे तो मिथ्यादृष्टि हैं ही, तू स्वयं को ही क्यों नहीं जानता, यदि तेरे निश्चल सम्यक्त्व नहीं तो तू भी तो दोषवान
अज्ञानी जीव मिथ्यात्व कषाय के वशीभूत हुए हँस-हँसकर संसार के कारण कर्मबंध को करते हैं, उनको देखकर श्री गुरुओं को करुणा उत्पन्न होती है कि ये ऐसा कार्य क्यों करते हैं, वीतराग क्यों नहीं
होते
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