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इस ग्रन्थ की संस्कृत टीका तो थी नहीं परन्तु कुछ टिप्पण था, उससे विधि मिलाकर जैसा मेरी बुद्धि में प्रतिभासित हुआ वैसा अर्थ लिखा है। कहीं भूल अवश्य हुई होगी सो बुद्धिमान शोध लेना । आम्नाय विरुद्ध अर्थ तो मैंने लिखा नहीं परन्तु यदि गाथा के कर्ता का अभिप्राय कहीं कुछ और हो तो समझ लेना।
सवैया रागादिक दोष जामै पाइये कुदेव सोय,
ताको त्यागि वीतराग देव उर लाइये। वस्त्रादिक ग्रन्थ धारि कुगुरु विचारि तिन्हैं,
गुरु निर्ग्रन्थ को यथार्थ रूप ध्याइये। हिंसामय कर्म सो कुधर्म जानि दूरि त्यागि,
दयामय धर्म ताहि निसदिन भाइये। सम्यक् दरस मूल कारण सरस ये ही,
इनिके विचार में न कहुं अलसाइये।। अर्थ-रागादि दोष जिनमें पाये जाते हैं वे कुदेव हैं उनका त्याग करके वीतराग देव को हृदय में धारण करना, वस्त्रादि परिग्रहधारियों का कुगुरु रूप से विचार करके निग्रंथ गुरु के यथार्थ स्वरूप का ध्यान करना तथा हिंसामय कर्म को कुधर्म जानकर उसका दूर से ही त्याग करके दयामय धर्म की निशिदिन भावना करनी ये ही सरस सम्यग्दर्शन के मूल कारण हैं, इनके विचार में कभी भी आलस्य-प्रमाद नहीं करना।
छप्पय
मंगल श्री अर्हन्त संत जन चिंतित दायक, मंगल सिद्ध समूह सकल ज्ञेयाकृति ज्ञायक। मंगल सूरि महंत भूरि गुणवंत विमल मति,
उपाध्याय सिद्धान्त पाठ कारक प्रवीन अति। निज सिद्ध रूप साधन करत, साधु परम मंगल करण। मन-वचन-काय लव लाय नित, "भागचंद' वंदत चरण।।
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