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अर्थ-संतजनों को चिन्तित पदार्थ को देने वाले श्री अर्हत देव मंगल हैं, सकल ज्ञेयाकृतियों के ज्ञायक श्री सिद्धों का समूह मंगल है, प्रचुर गुणवान और निर्मल बुद्धि के धारक महान आचार्य तथा सिद्धान्त के पाठ करने में अत्यंत प्रवीण उपाध्याय मंगल हैं एवं निज सिद्ध रूप का साधन करने वाले साधुजन परम मंगल को करने वाले हैं इनकी मन-वचन-काय से लौ लगाकर भागचंद जी नित्य वंदना करते हैं।
छप्पय गोपाचल के निकट सिंधिया नृपति कटक वर, जैनी जन बहु बसह जहां जिन भाव भक्ति भर | तिनिमैं तेरह पंथ गोष्ठ राजत विशिष्ट अति,
पार्श्वनाथ जिनधाम रच्यौ जिन शुभ उतुंग अति। तहं देस वचनिका रूप यह, 'भागचन्द' रचना करिय। जयवंत होउ सतसंग नित, जा प्रसाद बुधि विस्तरिय।।
अर्थ-गोपाचल पर्वत के निकट सिंधिया राजा का श्रेष्ठ नगर था जिसमें जिनभक्ति के भाव से भरे हुए बहुत जैनीजनों का निवास था। उसमें पार्श्वनाथ भगवान का अत्यंत शुभ और ऊँचा जिनमंदिर था जिसमें अत्यंत विशिष्ट तेरहपंथ की गोष्ठी सुशोभित थी। वहाँ पर पं० श्री भागचंद जी ने यह देशवचनिका रूप रचना की। सत्संग नित्य जयवंत रहे जिसके प्रसाद से बुद्धि का विस्तार हुआ।
दोहा संवत्सर गुनईस सै, द्वादस ऊपरि धार।
दोज कृष्ण आसाढ़ की, पूर्ण वचनिका सार।। अर्थ-संवत्सर उन्नीस सौ बारह के आसाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की दूज तिथि को यह सारभूत वचनिका पूर्ण हुई।
(सम्पूर्णोऽयं ग्रंथः ।
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