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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भव्य जीव
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से होता है सो इस काल में सत्यार्थ गुरु का निमित्त मिलना ही कठिन है तो सुख कैसे हो ! ||१५८ ।।
पंचम काल में श्रावक कहलाना भी आश्चर्य है जं जीविय मत्तं वि हु, धरेमि णामं पि सावयाणं च। तं पि पहु! महाचुज्जं, इह विसमे दूसमे काले।।१५६।। अर्थः- इस विषम दुःखमा पंचम काल में मैं जो यह जीवन मात्र धारण किये हुए हूँ और श्रावक का नाम भी धारण किये हुए हूँ वह भी हे प्रभो ! महान आश्चर्य है।।
भावार्थ:- इस काल में मिथ्यात्व की प्रवृत्ति बहुत है इस कारण हम जीवित हैं और श्रावक कहलाते हैं यह भी आश्चर्य है। इस प्रकार श्रावकपने की इस काल में दुर्लभता दिखाई है ।।१५६।।
सम्यक्त्व प्राप्ति की भावना परिभाविऊण एवं, तह सुगुरु करिज्ज अम्ह सामित्तं । पहु सामग्गि सुजोगे, जह सुलहं होइ सम्मत्तं।।१६०।। अर्थः- इस प्रकार विचार कर कहते हैं कि 'हे प्रभो ! मुझ पर ऐसा स्वामिपना करो जिससे मुझे गुरु की सामग्री का सुयोग प्राप्त होकर सम्यक्त्व सुलभ हो जाये' अथवा 'जह सुलहं होइ सम्मत्तं' के स्थान ।