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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद
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अर्थ:- यद्यपि मैं उत्तम श्रावक की पैड़ी पर चढ़ने में असमर्थ र । हूँ तथापि प्रभु के वचनों के अनुसार करने का मनोरथ मेरे हृदय भव्य जीव 5 में सदा बना रहता है।।
भावार्थः- मैं शक्ति की हीनता के कारण श्रावक के उत्कृष्ट व्रतों | को धारण करने में असमर्थ हूँ तो भी मुझे जिनाज्ञा प्रमाण धर्म धारण करने की लालसा है-इस प्रकार ग्रंथकार ने भावना भाई है ।।१५६ ।।
प्रभु के चरणों में प्रार्थना ता पहु पणमिय चरणे, इक्कं पत्थेमि परम भावेण । तुह वयण-रयण-गहणे, अइलोहो हुज्ज मुज्झ सया।।१५७।।
अर्थः- हे प्रभु ! परम भाव से आपके चरणों में प्रणाम करके एक प्रार्थना करता हूँ कि 'आपके वचन रूपी रत्नों को ग्रहण करने का मुझे सदा अत्यन्त लोभ हो'-ऐसी ग्रन्थकार ने इष्ट प्रार्थना की है। ।१५७ ।।
___ गुरु के बिना सुख कैसे हो इह मिच्छवास णिक्किट्ट, भावउ गलिय गुरु-विवेयाणं। अह्माण कह सुहाई, संभाविज्जति सुविणे वि।।१५८।। अर्थः- इस पंचम काल में मिथ्यात्व के निवास रूप निकृष्ट भाव से जिनका गुरु-विवेक नष्ट हो गया है ऐसे हम लोगों को स्वप्न में भी सुख की संभावना कैसे हो ! ||
भावार्थः- सुख का मूल विवेक है और वह विवेक श्री गुरु की कृपा जाना
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