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________________ श्री नेमिचंद जी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत धर्मायतनों में भेद डालना जिनमत की रीति नहीं एगो सुगुरु एगो वि, सावगो चेइयाइं विविहाणि । तत्थय जं जिणदव्वं, परप्परं तं ण विच्चंति । । १५० ।। तेण गुरु णो सावय, ण पूय होइ तेहि जिणणाहो । मूढाणं मोहठिइ, जाणं जइ समय- णिउणेहिं । । १५१ । । अर्थः- सद्गुरु जो निर्ग्रथ गुरु वे सब एक हैं और श्रावक भी एक हैं और नाना प्रकार के चैत्य अर्थात् जिनबिंब भी एक हैं - ऐसा होने पर भी जो जिनद्रव्य अर्थात् चैत्यालय के द्रव्य को परस्पर एक-दूसरे के काम में खर्च नहीं करते हैं वे गुरु नहीं हैं और श्रावक भी नहीं हैं और उन्होंने भगवान को पूजा भी नहीं । उन मूर्ख जीवों की ऐसी मिथ्या परिणति शास्त्र - ज्ञानियों द्वारा ही जानी जाती है । भावार्थ:- कितने ही जीव चैत्यालय आदि में भेद मानते हैं कि ये चैत्यालयादि तो हमारे हैं और ये दूसरों के हैं - ऐसा मानकर परस्पर भक्ति नहीं करते तथा धन भी खर्च नहीं करते वे मिथ्यादृष्टि हैं क्योंकि इस प्रकार का भेद डालना जिनमत की रीति नहीं है । । १५० - १५१ । । धर्मायतनों में भेद करने वाला गुरु नहीं सोण गुरु जुगपवरो, जस्सय वयणम्मि वट्टए भेओ । चियभवण सावगाणं, साहारण दव्वमाईणं । । १५२ ।। अर्थ:- जिसके वचन में जिनमंदिर और श्रावक और पंचायती द्रव्य इत्यादि में भेद वर्तता है वह युगप्रधान गुरु नहीं है ।। ८८ भव्य जीव
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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