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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
जिनदेव का ज्ञाता लोकाचार को कैसे माने जइ जाणसि जिणणाहो, लोयायारव्व पक्ख पउहूओ। भव्य जीव ____ता तं तं मण्णंतो, कह मण्णसि लोय-आयारं।।१४८||
अर्थः- यदि तुम लोकाचार से बहिर्भूत जिनेन्द्र भगवान को जानते | हो तो उनको मानते हुए तुम लोकाचार को कैसे मानते हो! ।।
भावार्थ:- जिनमत तो अलौकिक है यदि उसे मानते हो तो उससे विरुद्ध मिथ्यादृष्टियों की रीति को मत मानो-ऐसा गाथा का भाव जानना ।।१४८||
मिथ्यात्व से ग्रस्त जीवों का कौन वैद्य है जो मण्णे वि जिणिंद, पुणो वि पणमंति इयर देवाणं। मिच्छत्त-सण्णिवाइय, धत्थाणं ताण को विज्जो।।१४६।।
अर्थ:- जो जीव जिनेन्द्र भगवान को मानकर भी अन्य कुदेवों को प्रणाम करते हैं उन मिथ्यात्व रूपी सन्निपात से ग्रस्त जीवों का कौन वैद्य है!||
भावार्थ:- अन्य जीव तो मिथ्यादृष्टि ही हैं परन्तु जो जीव जैन होकर भी रागादि दोषों सहित अन्य देवों को पूजते हैं एवं प्रणाम करते हैं वे महा मिथ्यादृष्टि हैं। मिथ्यात्व के नाश का उपाय जिनमत है और जिनमत को पा करके भी जिनका मिथ्यात्व रूपी रोग न जाये तो फिर " उसका कोई दूसरा उपाय ही नहीं है।।१४६।।
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