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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भव्य जीव
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अर्थ:- जो बात निश्चय से अज्ञानी लोग मानते हैं उसको । श्री नेमिचंद जी तो सारा लोक मानता ही है परन्तु जो बात जिनेन्द्र देव मानते
हैं उसे तो कोई विरले जीव ही मानते हैं।।
भावार्थः- अज्ञानी जीवों को जो धन-धान्यादि उत्कृष्ट भासित होते हैं, वे तो सभी मोही जीवों को स्वयमेव उत्कृष्ट भासित होते ही हैं परन्तु वीतराग भाव को उत्कृष्ट व हित मानने वाले बहुत थोड़े हैं क्योंकि जिनकी भली होनहार है अर्थात् निकट संसार है और मोह मंद हो गया है उनको ही वीतरागता रुचती है ||१४६ ।।
साधर्मी के प्रति अहितबुद्धि वाला मिथ्यात्वी है साहम्मि आउ अहिओ, बंधु सुआइसु जाण अणुराओ। तेसिं ण हु सम्मत्तं, विण्णेयं समयणीईए।।१४७।। अर्थः- जिन्हें साधर्मियों के प्रति तो अहितबुद्धि है और बंधु-पुत्र आदि के प्रति अनुराग है उन्हें प्रकटपने सम्यक्त्व नहीं है-ऐसा सिद्धान्त के न्याय से जानना चाहिये ।।
भावार्थ:- सम्यक्त्व के अंग तो वात्सल्यादि भाव हैं सो जिसे साधर्मी के प्रति प्रेम नहीं है उसे सम्यक्त्व नहीं है। पुत्रादि से प्रीति तो मोह के उदय से सब ही जीवों को होती है, उसमें कुछ भी सार नहीं है-ऐसा जानना ।।१४७ ।।
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