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उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला
श्रा
नेमिचंद भंडारी कृत
श्री नेमिचंद जी
भव्य जीव
___ लोकाचार में प्रवर्तने वाला जैन नहीं है जो जिण आयरणाए, लोओ ण मिलेइ तस्स आयारे। हा ! हा! मूढ करितो, अप्पं कह भणसि जिणप्पणहं।।१४५।।
अर्थः- कोई जीव जिनराज के आचार में प्रवर्तते हैं उस पर भी लोग उनके आचार में सम्मिलित नहीं होते हैं तो हाय! हाय !! लोकाचार में प्रवर्तते हुए मूढजन अपने को जैनी किस प्रकार कहते हैं !||
भावार्थ:- जैनियों की रीति तो अलौकिक है-लोक से न्यारी है, उसे ही दिखाते हैं। जैनी वीतराग को देव मानते हैं, लोग रागी-द्वेषी को देव मानते हैं; जैनी अपरिग्रही निर्ग्रन्थ साधु को गुरु मानते हैं, लोग परिग्रही सग्रन्थ को गुरु मानते हैं व जैनी अहिंसा-दया में धर्म मानते हैं, लोग यज्ञादि-हिंसा में धर्म मानते हैं इत्यादि और भी लोक से उल्टी रीति जैनियों की है सो लौकिक जो कुदेव हैं उनके पूजनादि की कोई प्रवृत्ति करवाए एवं उनका प्रचार करे तो वह जैनी कैसा ! तात्पर्य यह जानना कि वह जैन नहीं है।।१४५।।
जिननाथ की बात को मानने वाले विरल हैं जं चिय लोओ मण्णइ, तं चिय मण्णंति सयल लोया वि। जं मण्णइ जिणणाहो, तं चिय मण्णंति किवि विरला ।।१४६।।
१. अर्थ-लोकमूढ़ता।
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