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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- कोई मंदिर जी में रहने वाले रक्तांबर अथवा
भट्टारक आदि कहते हैं कि यह हमारा मंदिर है, ये हमारे श्रावक हैं, यह हमारा द्रव्य है तथा वे चैत्यालय आदि हमारे नहीं हैं - इस प्रकार जो भेद मानते हैं वे गुरु नहीं हैं। गुरु तो बाह्य - अभ्यन्तर परिग्रह रहित जो वीतराग हों वे ही हैं- ऐसा तात्पर्य जानना । । १५२ । ।
मिथ्यात्व की गाँठ का माहात्म्य
संपइ पहुवयणेण वि, जाव ण उल्लसइ विहि-विवेयत्तं । ता निविड मोह मिच्छत, गंठिया दुट्ट माहप्पं । । १५३ ।।
अर्थ:- आज इस काल में जीव को जिनराज प्रभु के वचनों से भी जब तक हित-अहित का विचार और स्व-पर का विवेक उल्लसित नहीं होता तब तक उसे मोह मिथ्यात्व की मजबूत गाँठ का खोटा माहात्म्य है अर्थात् मिथ्यात्व की प्रचुरता है ।।
भावार्थ:- जिनवचनों को पा करके भी यदि हित-अहित का ज्ञान नहीं हुआ तो ऐसा समझना कि उसके मिथ्यात्व का तीव्र उदय है । । १५३ ।।
प्रभु वचनों की आसादना महादुःख का कारण है बंधण मरण भयाई, दुहाई तिक्खाइं णेय दुक्खाई । दुक्खाण-दुह- णिहाणं, पहुवयण असायणा करणं । । १५४ । ।
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भव्य जीव